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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१२६
का परित्याग करेगा तब समता प्राप्त होगी। जब तक विषम भावों का परित्याग नहीं किया जाता, तब तक कार्य-सिद्धि नहीं हो सकती। जीव को चाहिए कि पुरुषार्थ करके रागादि भाव न्यून करते हुए समता प्राप्त करने का प्रबल उद्यम करे। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी ने श्रद्धा के मुंह से स्वयं पुरुषार्थ करने का उपदेश दिलवाया है। ममता के वशीभूत होकर वह स्वयं अपनी समता को भूला है। अब उसे स्वयं ही प्रसन्न करना होगा।
श्रद्धा कहती है – रूठी हुई समता को आप स्वयं ही मनाओ, प्रसन्न करो। पति को अपनी पत्नी के प्रेम के मध्य किसी बसीठ (मध्यस्थ दलाल) को नहीं लाना चाहिए क्योंकि यह प्रेम का व्यापार अत्यन्त ही अगम्य एवं गहन है। इसकी परीक्षा करना कठिन है। कोई विरला ही परीक्षा करके इसे समझ पाता है। जो हृदय देता-लेता है वही इसका मर्म जान सकता है। अरे चेतनराज ! क्या अपनी पत्नी को मनाने के लिए किसी दूती या दलाल की आवश्यकता है ? अत: आप इस चक्कर में न पड़ें। अपनी पत्नी को प्रसन्न करने के लिए किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं है। दूती एवं दलाल तो उप-पत्नियों, रखैलों आदि के लिए होते हैं ।। १ ।।
विवेचन -समता रूठ गई है। अब चेतन के मन में अध्यवसाय उत्पन्न हुआ है कि मैं अपनी प्रियतमा से मिल तो ठीक, परन्तु वह सोचता है कि मैं तो माया, ममता तथा तृष्णा में लीन हूँ। अतः अब मुझे उससे मिलने के लिए क्या उपाय करना चाहिए ? चेतन ने श्रद्धा को उसे प्रसन्न करने हेतु कहा। इस पर श्रद्धा ने कहा कि अपनी प्रियतमा को आप स्वयं मनायें। इसमें किसी दलाल की आवश्यकता नहीं है। यदि आपका उसके प्रति शुद्ध प्रेम हो तो अहंकार त्याग कर आप उसके पास जागो और उसे प्रसन्न करो।
श्रद्धा आगे चेतनराज को कहती है कि आप यह मत सोचो कि दीर्घकाल से आप समता से अलग हैं, अतः वह प्रसन्न नहीं होगी। आपको समझना चाहिए कि वह महान् पतिव्रता है। वह आपका तिरस्कार कदापि नहीं करेगी। आप मन की ग्रन्थि निकालकर समता के साथ हृदय की दो बातें कर लेना। आप स्वरूप ज्ञानरूपी अमृत रस की बूंदें छिड़ककर विषय-कषाय जनित शारीरिक तपन को शान्त कर दीजिये ॥२॥