________________
श्री आनन्दघन पदावली-१२७
विवेचन - श्रद्धा वे चेतनराज को उपाय बताया कि यदि आप रूठी हुई समता (प्रियतमा) को मनाना ही चाहते हैं तो अपने जीवन से सम्बन्धित दो बातें उसके साथ करो, जिससे वह प्रसन्न हो जायेगी। आपके मन में जो परभाव-रमणता रूप ग्रन्थि हो, उसे निकाल दो। क्रोध, मान, माया, लोभ, ईा, निन्दा, अज्ञान एवं द्वेष आदि परभाव ग्रन्थि निकालने पर ही आप समता को प्रसन्न कर पाओगे। दूसरी बात यह है कि आप देह का ताप शान्त कर दो। आप जो बाह्य सुख प्राप्त करने के लिए आतुर हैं, विषय-सुखों की प्राप्ति के लिए देह-ताप सह रहे हैं, उस ताप को मिटा दो। यदि इस प्रकार आप अपने जीवन की बात करेंगे तो वह आपकी ओर उन्मुख होगी.। मन की ग्रन्थि तथा तन का ताप नष्ट करने के लिए प्रभु के वचनरूपी अमृत-रस को छिड़कना पड़ेगा अर्थात् भगवान की वाणी का हृदय में स्मरण, मनन, निदिध्यासन रूप सिंचन करना पड़ेगा। श्रद्धा ते चेतन को यह उपाय सुझाया।
चेतन ने श्रद्धा को पुनः पूछा कि ये पंचेन्द्रिय के विषय कैसे छटेंगे ? परभाव-रमणता . कैसे दूर होगी। और यह कषाय-जन्य मानसिक ताप कैसे शान्त होगा? इस पर श्रद्धा ने बताया कि हे चेतन ! आप में अनन्त शक्ति है। इस पर-भाव-रमणता एवं विषयवासना की ओर थोड़ी भी वक्र दृष्टि रखोगे तो हे स्वामी ! ये बिना विरोध किये हट जायेंगी। इन विषय-वासनाओं को आप यदि कुदृष्टि से देखेंगे तो वे सब पलायन कर जायेंगी। आपकी शक्ति के समक्ष कौन ठहर सकता है ? आपकी उस ओर तनिक दृष्टि होते ही समता अक्षय एवं अव्याबाध सुख के साथ आपका अभिवादन करती हुई आपसे प्रा मिलेगी।
विवेचन–श्रद्धा ने चेतन को समझाया कि यदि आप दृष्टि को शुद्ध रखोगे तो वह आपसे प्रा मिलेगी। जब समता आपसे प्रा मिलेगी तब आपको अव्याबाध सुख की प्राप्ति होगी। समता का मिलाप होने पर आत्मा परमात्म-पद को प्राप्त करती है। उसे किसी प्रकार की वेदना नहीं रहती। क्षायिक भाव की नौ लब्धियाँ आत्मा में प्रकट होती हैं और आत्मा सादि अनन्त सुख में लीन होती है।
श्रद्धा ने जब समता को चेतन का संवाद कहा तो वह कहती हैहे सखि ! स्वामी ने मुझे स्मरण किया है तो मैं तत्पर हूँ, परन्तु अन्धेरी रात है, घनघोर घटाएँ छाई हुई हैं; ऐसे समय में मुझे मार्ग कैसे दिखाई देगा?. हे चेतन स्वामी ! यदि आप मुझ पर करुणा करें तो मेरा