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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - १२८
निर्वाह हो जाये और आपके चन्द्र- मुख के मुझ अभागिन को दर्शन हो जायें ||४||
विवेचन - योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघन जी ने उपर्युक्त पद्यांश में अत्यन्त गम्भीर एवं मार्मिक बात कही है । तात्पर्य यह है कि चेतन के पुरुषार्थ से ही समभाव प्राप्त हो सकता है । अविरति रूप रात्रि, प्रत्याख्यान एवं अप्रत्याख्यान कषायों की घनघोर घटा में अप्रमत्त मार्ग कैसे दिखाई दे ? जब तक चेतन अविरति परिणाम, प्रत्याख्यान एवं अप्रत्याख्यान कषायों का परित्याग नहीं करता तब तक समता कैसे प्राप्त सकती है ।
समता का सन्देश चेतन को तनिक भी नहीं प्रखरता । वे इसे अन्यथा नहीं लेते। उन्हें ऐसी दुविधा नहीं होती कि स्वयं आने के बजाय मुझे वहाँ बुलाती है । जहाँ प्रेम होता है वहाँ तनिक भी द्वैत भाव नहीं होता, बड़प्पन का तनिक भी अभिमान नहीं होता । आनन्द के समूह चेतन प्रभु स्वयं ही समता की शय्या पर आकर बैठ गये अर्थात् अविरति परिणामों को त्याग कर उन्होंने अप्रमत्त भाव ग्रहण कर लिया || ५ ||
विवेचन -- समता का सन्देश पाकर चेतन स्वामी के मन में अपूर्व प्रेम प्रकट होता है । जहाँ प्रेम होता है वहाँ परस्पर मन में भिन्नता नहीं होती । जहाँ शुद्ध प्रेम होता है वहाँ स्वार्थ का नाम - निशान नहीं होता । शुद्ध प्रेम में छोटे-बड़े का भेद भाव नहीं रहता । शुद्ध प्रेम में द्विधा भाव: न रहकर आनन्द का साम्राज्य व्याप्त रहता है । आत्मा का समता के साथ शुद्ध प्रेम प्रकट होने पर द्विधाभाव नष्ट हो गया। साथ-ही-साथ मन की मोह - दोष रूप मलिनता नष्ट हो गई । समता के निवेदन पर आनन्द के समूह रूप आत्मस्वामी स्वयं ही समता की शय्या (सेज) पर आये और अपने अनन्त सुख के भोक्ता बने ।
( ४८ ) ( राग-धन्यासी )
साखी - कुबुधि कुबरी कुटिल गति, सुबुधि राधिका नारि । चोपरि खेले राधिका, जीते कुबिजा
हारि ।।
प्रानी मेरो खेले चतुरगति चोपर । नरद गंजफा कौन गनत है, माने न लेखे बुधिवर |
प्रानी० ।। १ ।।