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________________ ___ श्री आनन्दघन पदावली-१२५ धोरे-धोरे आत्म-स्वामी तेरे घर आयेंगे। तू उतावली होकर चंचल हो जाती है और अधीर होकर शंकाशील बन जाती है। ऐसा नहीं करना चाहिए। तू समता रखकर आत्म-स्वामी के सम्बन्ध में निःशंक हो जा। राग-द्वेष की वृत्ति दूर करके आत्म-स्वामी के प्रेम में मग्न होकर चंचलता का त्याग कर। ऐसा करने से प्रानन्दघन आत्म-प्रभु उपशम आदि भाव में धीरे-धीरे आयेंगे और आनन्द के घन के द्वारा तेरे मेद की वृद्धि होगी। . . (४७) (राग-गौड़ी) रिसानी आप मनावो रे, बीच बसीठ न फेर । सौदा अगम प्रेम का रे, परिख न बुझे कोइ ।। ले दे. वाही गम पड़े प्यारे, और दलाल न होइ । रिसानी० ।। १ ।। दोइ बातां जिय की करउ रे, मेटो न मन की आँट । तन की तपत बुझाइये 'प्यारे, वचन सुधारस छाँट ।। . . . . . रिसानी० ॥ २ ॥ नेक कुनजर निहारिये रे, उजर न कीजे नाथ । . नेक निजर मुजरइ मिले, अजर अमर सुख साथ ।। रिसानी० ।। ३ ।। निसि अँधियारी घन घटा रे, पाउं न वाट के फंद । करुण कर तो निरवहुँ रे, देखू तुझ मुख चंद ।। रिसानी० ॥ ४ ॥ प्रेम जहाँ दुविधा नहीं रे, नहीं ठकुराइत रेज। .. आनन्दघन प्रभु प्राइ बिराजे, पाप हो समता सेज ।। रिसानी० ॥ ५ ॥ अर्थ-ममता-माया के फन्दे में फंसे हुए चेतन को अपनी भूल का ज्ञान होता है। वह श्रद्धा को समता को प्रसन्न करने, मनाने हेतु कहता है। श्रद्धा उसे अत्यन्त ही उत्तम उत्तर देती है। जब चेतन राग-द्वेष
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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