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सद्गुरवे नमः #
अध्यात्मयोगी श्रीमद् आनन्दघनजी की
जीवन-झाँकी शाश्वत प्रेम .एवं भक्ति की भावात्मक भूमि अनिर्वचनीय है। इस दशा में न किसी प्रकार का अहंकार रहता है, न द्वेष, न पद-प्रतिष्ठापरम्परा प्रादि का लेश भी. व्यामोह। बस ! समर्पण ही समर्पण । जिनेश्वर भक्ति के सन्दर्भ में प्रांनन्दघन जैसा अनूठा भक्त क्वचित् है। शिक्षणशालाओं में अध्ययन न करने पर भी आपके अन्तस् में करुणा एवं ज्ञान का अनुपम संगम था ।
— श्रीमद् आनन्दघनजी महाराज एक उपासक थे। वे स्वयं को ऋषभ जिनेश्वर रूप प्रीतम की प्रिंया मानते थे। उनके नेत्रों में प्रतिपल विरह के अश्रु चमकते थे। वे प्रीतम के वियोग में रो-रोकर उनके दर्शन के लिए अधीर रहते थे। वे स्वयं को 'कंचन वरणा नाह' की हृदय-रानी, प्रारण-वल्लभा मानते थे और उस कञ्चनवर्णी कान्ता के रूप में वे भगवान के प्रबल उपासक थे। वे कोई समर्थ उपदेशक नहीं थे। जब-जब उनकी विरह-वेदना पर विचार किया जाता है तो नेत्रों के समक्ष एक कल्पना-चित्र खड़ा होता है, मानो वे निर्जन पर्वत-शृखलाओं में होकर गुजरती पगडण्डियों पर भटकते हुए वन के वृक्षों के तनों पर अपना सिर पटक-पटक कर उन्हें निवेदन कर रहे हों कि 'मुझे अपने प्रीतम का पता बताओ, अन्यथा उन प्रीतम के वियोग में मैं अपने प्राण दे दूंगा, इस गहन कन्दरा से जुड़ी खाई में कूद पडूगा।' वे भगवान ऋषभदेव से मिलने के लिए इतने आतुर थे। वे अपने प्रीतम के लिए विरहाग्नि में जलते रहते थे। विरह के आँसू बहाना ही उनकी साधना थी। वे आँसू ही उनका व्रत, पूजा, प्रार्थना, स्वाध्याय और ध्यान था।
योगिराज श्री प्रानन्दघनजी महाराज का कोई तारतम्य पूर्वक लिखा हुमा जीवन-चरित्र तो कहीं भी उपलब्ध नहीं है। उनके सम्बन्ध