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________________ श्री आनन्दघन पदावली-८६ का पार नहीं रहता; परन्तु जब तक शुद्ध चेतनस्वामी अपनी पत्नी को दर्शन नहीं देते तब तक शुद्ध चेतना पति के विरह में अपनी आन्तरिक दशा प्रकट करे, यह उचित ही है ।। ३ ।। विरह-ताप को शान्त करने के लिए सुमति ने जब उपचार किये तब शुद्ध चेतना उसे कहती है कि हे सखी ! शीतलोपचार, खस का पंखा, सुगन्धित गुलाब-जल एवं केवड़ा-जल, बावना चन्दन आदि का प्रयोग क्यों करती है ? अरी भोली ! यह कोई दाह-ज्वर नहीं है जो इन उपचारों से शमित हो जाये। यह तो मदन है, यह तो विरहानल है। यह कोई अग्नि नहीं है जो शीतल उपचारों से शान्त हो जाये। ये पंखे आदि सुगन्धित शीतल पदार्थ तो उलटे प्रीतम की याद दिलाने वाले हैं, विरह की वृद्धि करने वाले हैं। ये सब काम-ज्वर की वृद्धि के हेतु हैं। अतः हे सखी ! . तू इनका प्रयोग मत कर । विवेचन-सुमति को लगा कि शुद्ध चेतना के प्राण निकलने लगे हैं, वह अचेत हो रही है। अब क्या किया जाये ? तब उसे ध्यान पाया कि शीतल उपचार करने से शुद्धचेतना को तनिक शान्ति प्राप्त होगी। इस कारण उसने पंखे का उपयोग किया, देह पर बावना चन्दन का विलेपन किया, गुलाब-जल आदि का प्रयोग किया, परन्तु शुद्धचेतना को तनिक भी शान्ति प्राप्त नहीं हुई। उलटे शीतल उपचारों से उसके ताप में वृद्धि ही हुई, हृदय की जलन बढ़ गई, उसकी साँसें भी उष्ण निकलने लगीं। सुमति ने शुद्धचेतना को पूछा कि विपरीत प्रभाव क्यों हो रहा है ? तब शुद्धचेतना ने बताया कि हे सखी ! यह कोई अग्नि नहीं है, यह तो पति के वियोग रूपी विरहाग्नि है। इसके शमन के लिए शीतल उपचार करने से उलटे तन-ताप की वृद्धि होती है। आत्म-पति की प्राप्ति के बिना शुद्धचेतना के अन्तर में हर्ष नहीं होता। योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघन जी ने उपर्युक्त पद में अद्भत प्रकार से व्यवहार दृष्टि के द्वारा निश्चय का पोषण किया है। श्री ज्ञानसारजी महाराज ने उपर्युक्त पद की टीका करते हुए शीतलोपचार को यथाप्रवृत्तिकरण में गिना है और यदि ये उपचार चलते रहे तो अपूर्वकरण भी आयेगा। तात्पर्य यह है कि अन्तिम यथाप्रवृत्तिकरण तक विरहकाल है। उसके पश्चात् नियम से अपूर्वकरण आता है जिसमें राग-द्वेष की ग्रन्थि का भेदन हो जाता है और अनिवृत्तिकरण में आत्मा का मिलाप हो
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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