SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-८८ सुमति कहती है कि " हे श्रद्धे ! पहले जब मुझे शुद्ध चेतन रूप पति का वियोग नहीं था, उस समय मैं विरह के दुःख से सर्वथा अनभिज्ञ थी । अतः जब मैं पति-वियोग से दुःखी अन्य विरहिणियों को तन से क्षीण तथा मन से दुःखी देखती थी, तब मैं उन पर हँसती थी, उनकी हँसी उड़ाती थी, किन्तु अब जब मैंने शुद्धात्मा के विरह- दुःख का अनुभव किया तो मेरे मुँह से यह निकलता है कि कोई कदापि प्रेम मत करना । प्रेमी के विरह के दुःख के समान अन्य कोई दुःख नहीं है । स्नेही व्यक्ति ही स्नेह का स्वरूप समझ सकते हैं ।" विवेचन – गर्भिणी स्त्री गर्भ की वेदना का अनुभव कर सकती है, परन्तु वन्ध्या स्त्री को गर्भिणी स्त्री के दुःख का अनुभव नहीं हो सकता। पति - वियोगी नारी ही पति वियोग की वेदना को जान सकती है । इस कारण ही सुमति ने उद्गार प्रकट किये कि कोई कदापि किसी से स्नेह मत करना, अन्यथा विरह की ज्वालाओं में झुलसना पड़ेगा, प्रतिपल रुदन करना पड़ेगा । सुमति ने जब अपने स्वामी का स्वरूप पहचाना तब उसके अन्तर में शुद्धात्म- पति के प्रति प्रेम उत्पन्न हुआ । प्रेम तो उत्पन्न हुआ परन्तु परोक्षं दशा में साक्षात् आत्म-स्वामी दृष्टि. गोचर नहीं होता, अत: वह स्मृति रूपी झरोखें में बैठकर आत्मा को . साक्षात् देखने की प्रतीक्षा कर रही है । साक्षात् आत्मा के दर्शन के लिए आतुर सुमति वियोग के कारण रुदन करती है, परन्तु तेरहवें गुणस्थान की प्राप्ति के बिना आत्मा का साक्षात् दर्शन नहीं होता, जिसके कारण उसे दुःख होता है ।। २ ।। सुमति कहती है कि मेरे प्राणप्रिय स्वामी शुद्ध चेतन के बिना मैं कैसे जीवित रह सकती हूँ आर्जव, मार्दव आदि दस यतिधर्म रूपी प्राणवायु को विरहावस्था रूपी नागिन पीती रहती है । ऐसी दशा में शुद्ध चेतन के वियोग में सुमति के प्रारण कैसे रह सकते हैं क्योंकि शुद्ध चेतन के बिना सुमति आये भी कैसे ? विवेचन - सुमति अपने प्राणपति को ही अपना सर्वस्व समझती है । यदि हम अन्तर में विचार करें तो शुद्धचेतन पति के बिना शुद्ध चेतना के प्राण कैसे रह सकते हैं ? शुद्ध चेतना एवं शुद्ध चेतन पुष्प एवं पुष्प की सुगन्ध की तरह अलग नहीं हो सकते । शुद्ध चेतन स्वामी ज्यों-ज्यों असंख्यात प्रदेश रूपी घर की ओर प्रयाण करते हैं और चौथे गुणस्थानक से ऊपर के गुणस्थानकों को लाँघते जाते हैं, त्यों-त्यों शुद्ध चेतना के चैतन्यरूप प्रारण सशक्त होते जाते हैं और शुद्ध चेतना के हर्ष
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy