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श्री श्रानन्दघन पदावली
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समता महल धिराज है, वारणी रस द्वजे हो । बलि जाउं प्रानन्दघन प्रभु, ऐसे निठुर ह्व जे हो || पिया० ।। ६ ।।
अर्थ- - समता अपनो विरहावस्था में होने वाली दशा का वर्णन करते हुए कहती है कि हे श्रद्धे ! चेतन पति के बिना मैं अपनी सुध-बुध खो बैठी हूँ, मैं अपनी सार-संभाल रखना भी भूल गई हूँ । आत्म-पति के वियोग से दुःखी मैं अपने दुःखरूपी महल के झरोखे से अपने स्वामी को देखने के लिए दृष्टि लगाये हुए हूँ, परन्तु वे दृष्टिगोचर नहीं होते । चेतन स्वामी के वियोग में महल में बैठो मेरा मन नहीं लगता । मेरे नेत्रों से अश्रु-प्रवाह हो रहा है। पति के बिना सती स्त्री का मन अचेत सा रहता है । इस कारण से वह श्रद्धा को कहती है कि मैं महल के झरोखे में बैठकर स्थिर दृष्टि से प्रात्म-स्वामी की राह देख रही हूँ, परन्तु स्वामी दिखाई नहीं दे रहे |
श्री ज्ञानसार जी महाराज ने उपर्युक्त पद की टीका लिखी है जिसका सारांश निम्नलिखित है
सुमति अपनी सखी श्रद्धा को कहती है कि हे सखी ! मेरे स्वामी चेतन अशुद्धोपयोगी आत्मा से मुझे मिलना चाहिए अथवा नहीं ? इस धार्मिक विचार से मैं रहित हो गई । यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जिसका नाम हो समता है अथवा जो सुमति है वह स्वयं को कैसे भूल गई ? यदि वह भूल जाती है तो उसका नाम 'समता' युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। इसको स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं --- 'अशुद्धोपयोगी आत्मा के संयोग से मैं सुमति को कुमति हो गई। पति के विदेश गमन रूप वियोग-दुःख के झरोखे में अश्रुपात करके उसने उसमें स्नान कर लिया। विदेश गमन यहाँ पर पर परिणति रमरण, चिन्तवन समझना चाहिए । अशुद्धोपयोग में प्रवर्तन को अश्रुपात समझना चाहिए । अश्रुपात में मैं भूल गई अर्थात् इतने आँसू गिरे कि सुनों से मैं भूल - सी पड़ी, अन्यथा सुमति को रोकने से क्या वास्ता किन्तु शुद्धोपयोगी आत्मा के वियोग में मैं अपनी सुध-बुध भूल गई ।
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टीकाकार का यह अर्थ विचारणीय है । यहाँ सुमति पति के साथ एकाकार होकर अपनी सुध-बुध खो बैठती है । पति पर - परिणति में रमण करते हैं, अशुद्ध उपयोग में प्रवर्तन करते हैं, इससे सुमति दुःख-महल के झरोखे में झूलकर स्वयं को भूल जाती है ।। १ ।।