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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-८६
उद्दीपन विभाव) उनके सहित श्राकर हे नवल- नागर चेतन ! मुझे सुख प्रदान करो ।
विवेचन - आशा - ही आशा में जीवनयापन करने वाली समता कहती है कि " हे नवल नागर बहिरात्म- दशा से हटकर अन्तरात्म दशा को प्राप्त करने वाले मेरे प्रिय स्वामिन् ! मेरे स्थिरता रूप श्रावास में प्राकर तू मुझे सिद्ध-दशा की खुमारी का सुख देना अर्थात् तू मुझे आत्मिक सहजसुख प्रदान कर । हे चेतन - स्वामिन् ! तू बाह्य- प्रदेश में परिभ्रमण करता है, वह असत्य है, दुःखदायी है । पर-स्वभाव में राचना ही बाह्य- प्रदेश गमन है । आत्मा के स्वभाव में रमरणता करना अन्तं रप्रदेश है । अन्तरप्रदेश में आकर हे अन्तरात्म नवलं नागर ! मुझे सुख प्रदान कर ।" श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि अन्तर में आत्मा के रमण करने से अनन्त सुख प्रकट होता है ।
विशेष- समता के कहने का तात्पर्य यह है कि हे चेतन ! आप यह मत समझना कि मेरे पास आने से आपको वे आनन्दप्रद वस्तुएँ त्यागनी पड़ेंगी। मैं तो केवल मायाविनी ममता से आपका छुटकारा चाहती
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(राग - कान्हड़ा )
पिया बिन सुधि बुधि भूली हो ।
आँख लगाइ दुःख - महल के, झरोखे भूली हो || पिया० || १ ||
हँसती तबहु बिरानियाँ, देखी तन-मन छीज्यो हो । समुभी तब एती कही, कोई नेह न कीज्यो हो || पिया ||२|| प्रीतम प्रानपति बिना, प्रिया कैसे जीवे हो । प्रान - पवन बिरहा-दशा, भुअंगनि पीवे हो || पिया० ||३|| सीतल पंखा कुमकुमा, चन्दन कहा लावे हो । अनल न बिरहानल यहै, तन ताप बढ़ावे हो || पिया ||४| फागुन चाचरि इक निसा, होरी सिरगानी हो ।
मेरे मन सब दिन जरै, तन खाक उड़ानी हो || पिया० ॥ ५ ॥