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श्री आनन्दघन पदावली- ८५
विवेचन - शास्त्रों में उल्लेख है कि लाभान्तराय कर्म के उदय से लाभ की प्राप्ति नहीं होती । दानान्तराय कर्म के उदय से दान नहीं दिया जा सकता । भोगान्तराय कर्म के उदय से भोग की प्राप्ति नहीं होती । उपभोगान्तराय कर्म के उदय से उपभोग की प्राप्ति नहीं होती और वीर्यान्तराय कर्म के उदय से वीर्य-शक्ति नहीं खिलती । इस प्रकार मेरे स्वामी का ऐसे समय वियोग होने का कारण पूर्व भव का अन्तराय कर्म है । मेरे स्वामी के मिलाप में अन्तराय कर्म रुकावट डालता है । राम-सीता, नल-दमयन्ती आदि के वियोग का कारण कर्म ही था । इसी प्रकार से मेरे चेतन - स्वामी को मति भ्रम कराने वाला भी कर्म ही है और उनसे मेरा वियोग कराने वाला भी कर्म है । समता कहती है कि " है कर्म ! तू इतना क्रूर क्यों बन गया ? तूने मुझे सताने में कोई कमी नहीं रखी । अब भी मेरे प्रियतम से वियोग कराकर मुझे जितना सताना हो उतना सता ले ।” ।। १ ।।
जब समता ने प्रियतम की शय्या सूनी पाई तो उसे चेतन - स्वामी के विरह का इतना दुःख हुआ मानों कोई उसे भाला मार रहा हो । समता अपने स्वामी की अनुपस्थिति में भी उन्हें उद्देश्य करके कहती है कि हे स्वामिन् ! आप यमराज बनकर मेरा कहाँ तक अन्त लोगे ? आप चाहो तो मेरे प्रारण ले लो, परन्तु मुझे दर्शन दे दो ।
विवेचन - समता कहती है, “शारीरिक वेदना की तो अनेक औषधियाँ हैं परन्तु मानसिक वेदना की औषधि तो चेतन स्वामी के मिलाप के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है । ज्ञान आदि अनन्त ऋद्धियों के स्वामी शुद्ध चेतन से मिलाप हुए बिना अन्तर में व्याप्त विरह-ताप का शमन नहीं होगा । हे प्रिय आत्म-स्वामिन् ! आप यमराज के समान बनकर कब तक मेरा अन्त लोगे ? अब तो प्राण लेना शेष रहा है । अतः आपकी इच्छा हो तो अब मेरे प्रारण भी ले जाओ ।" समता के ये उद्गार प्रियतम के विरह की अनन्य वेदना प्रदर्शित करते हैं । वह अपने प्रारण देकर भी स्वामी का विरह टालने की अभिलाषा व्यक्त करती है । वह प्रियतम के मिलाप के समक्ष प्रारणों को भी तुच्छ गिनती है । उसे चेतन स्वामी के मिलाप के बिना तनिक भी शान्ति नहीं है ।। २ ।।
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समता कहती है कि कोयल की कूक, कामदेव, चन्द्रमा की चांदनी और आम्र-मंजरी तथा अन्य जो-जो वस्तुएँ आपको प्रानन्दप्रद हैं ( मानव-भव, स्वस्थ देह, उत्तम कुल, आत्मोन्नतिकारक धर्म आदि