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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-८४
श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि समता ने चेतन-स्वामी के स्वागतार्थ समस्त तैयारी कर ली है। वह परोक्ष दशा में भी आत्म-प्रभु को निवेदन करती हुई कहती है कि नौरंगी फूदे लगी हुई “भमरली खाट' बिछी हुई है। कलियाँ चुन-चुन कर मार्ग में बिछाई हुई हैं। यदि मेरे आनन्दघन स्वामी आ जायें और घर पर रहें तो कठिनाई से प्राप्त रंगबिरंगे वस्त्र पहनूगी, आनन्द पूर्वक रहूंगी।
विवेचन- असंख्यात प्रदेशरूप घर में समता निवास करती है और अपने आत्म-स्वामी को : उपर्युक्त साज सज कर घर में बुलाती है । अपने आत्म-प्रभु को अपने घर में लाने के लिए समता अन्तरंग साधनों को सजाती है और आत्म-प्रभु की भक्ति में लीन हो जाती है, उनके स्वागत हेतु प्रतीक्षा करती है। श्रीमद् आनन्दघन जी ने उपर्युक्त पद में यह प्रतिपादित किया है कि जीव बहिरात्म भाव तथा अन्तरात्म भाव को समझकर अपनी कषाय-परिणति से सचेत रहते हुए कभी-कभी अन्तरात्म भाव भावे तो वह सुधर सकता है ।।४।।
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(राग-कानडो) , करेजा रेजा रेजा रेजा। साजि सिंगार बणाइ प्राभूषण, गई तब सूनी सेजा।
• , करेजा० ।। १ ।। विरह व्यथा कुछ ऐसी व्यापत, मानु कोई मारत नेजा। अंतक अंत कहालू लेगो, चाहे जीव तो लेजा ॥ करेजा० ।। २ ॥ कोकिल काम चंद्र चतादिक, दैन ममत है जेजा। नावल नागर अानन्दघन प्यारे, प्राइ अमित सुख देजा।
- करेजा० ।। ३ ॥ अर्थ-समता अपने चेतन स्वामी से मिलने के लिए समस्त प्रकार के शृगार सज कर तथा आभूषण पहनकर अर्थात् बाह्य आडम्बर क्रिया रूप शृगार करके गई, परन्तु उन्हें समभाव रूप शय्या पर नहीं देखा। उन्हें उस समय ममता के घर गया जानकर उसके मन में अनेक विचार उठे। वह सोचने लगी कि ऐसे समय चेतन-स्वामी के वियोग का कारण क्या ?