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श्री आनन्दघन पदाइली-८३
जहाँ तहाँ ढूँढू ढोलन मीता, पण भोगी भँवर बिन सब जग रीता। रयण बिहाणी दीहाड़ा बीता, अजहुँ न पाये मुझे छेहा दीता ।।
__ मेरे० ॥३॥ नवरंगी फूदे भमरली खाटा, चुन-चुन कलियाँ बिछावो वाटा । रंग-रंगीली पहिनूंगी नाठा, आवे आनन्दघन रहे घर घाटा ।।
मेरे० ।।४।।
अर्थ-समता अपने प्रात्म-स्वामी के विरह में अपनी जीवन-दशा का वर्णन करती हुई कह रही है कि हे मजीठ के से लाल रंग वाले मेरे खेवनहार! मेरी एक बात सुनो। मैं अत्यन्त प्रिय चेतन-स्वामी के बिना प्रसन्नतापूर्वक नहीं रह सकतो। हे चेतन-स्वामी ! आपके बिना मेरा जीवन नीरस है ।।१।। .
समता कहती है कि रंगीन चुनड़ी, दुलड़ी, कत्था, सुपारी और पान का बीड़ा, मांग का सिन्दूर तथा चन्दन का लेप --ये सब मुझे पीड़ा
देते हैं क्योंकि तन रूपी काष्ठ को विरह.रूपी कीड़ा कुरेदता है। तात्पर्य • यह है कि चेतन-स्वामी के विरह में समस्त वस्तुएँ दुःखदायी हैं ॥२॥
समता परोक्ष दशा में आत्मा को खोजने का अत्यन्त प्रयत्न करती है और कहती है कि मैं आत्म स्वामी को ढूढ़ने के लिए इधर-उधर जाती हूँ परन्तु आनन्द भोगने वाले प्रियतम के बिना समस्त संसार सूना लगता है। अनेक रात्रियाँ व्यतीत हो गईं, अनेक दिन व्यतीत हो गये, परन्तु मुझे वियोग देने वाले प्रात्म-स्वामी अभी तक नहीं आये अर्थात् चेतन से अभी तक मेरा मिलाप नहीं हो रहा है ।
_ विवेचन -ज्ञान, दर्शन एवं प्रानन्दघन गुणों आदि के भोगी आत्मप्रभु के बिना सम्पूर्ण जगत् शून्य प्रतीत होता है। जड़ वस्तुओं के भोग से मनुष्यों को वास्तविक शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। समता जड़ वस्तुओं के भोग से दूर रहती है। समता का भोगी अप्रमत्त गुणस्थानस्थित प्रात्मा है। शुद्ध स्वरूप के भोगी आत्म-प्रभु के बिना अत्यन्त. समय निष्फल गया। अब तो आत्म-प्रभु से मिलाप हो तो ही समता सत्यानन्द प्राप्त कर सकती है। अप्रमत्त आत्म-प्रभु के बिना समता का भोगी अन्य कोई नहीं है ।।३।।