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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-८२
सुमति कहती है कि मैं बार-बार पृथ्वी एवं प्राकाश की ओर देखती हूँ। हे प्रियतम ! हे मेरे स्वामी ! आपका नेत्रों से प्रोझल रहना मेरे लिए अत्यन्त दुःखदायी है क्योंकि लोगों में मैं हँसी-मजाक का कारण बन गई हैं। लोगों के लिए मैं तमाशा बन गई हैं। अापके न आने से यह कह कर लोग मेरी हँसी उड़ाते हैं कि इस स्त्री को इसके पति ने त्याग दिया है। इस कारण मेरे देह में रक्त एवं मांस उबल रहा है और निश्वास निकलता है। अत: हे प्रात्म-स्वामिन् ! आप साक्षात् दर्शन
अनुभव-परिणति अपने प्रात्म-स्वामी को उपालम्भ देती हई कह रही है कि आपने मुझे विरहाग्नि में झोंक कर उचित नहीं किया। खैर, विरह को जो अच्छा लगा वह उसने किया। मेरी इस दशा की आपको खबर भी न पहुँचे तो मेरे जीवन को धिक्कार है। मेरे प्रियतम का यदि कोई पता-ठिकाना बता दे तो मैं उसे सीने से लगा ल और प्रानन्दघन जी कहते हैं कि यदि मेरे स्वामी चेतन राम आ जायें तो मैं घर में मंगल महोत्सव के दीप प्रज्वलित करूं, दीपावली की सी जगमगाहट करूं।
श्रुतज्ञान का फल अनुभव-परिणति है। जैनागमों के केवल पठन से तुरन्त अनुभव-परिणति उत्पन्न नहीं हो जाती, परन्तु पुन:पुनः प्रागमों का मनन, स्मरण करके उनके रस का आस्वादन किया जाये तो अनुभवपरिणति खिल उठती है। अत: इसके लिए जैन सिद्धान्तों के श्रवण एवं मनन की आवश्यकता है। अध्यात्म-शास्त्रों के परिशीलन एवं हृदय में अध्यात्म तत्त्व में रमण करने से अनुभव-परिणति खिल सकती है। अनुभव-परिणति से प्रात्मा भिन्न नहीं है। मन, वचन एवं काया की पवित्रता भी अनुभव-परिणति से होती है। अनुभव-परिणति से ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है और आत्मा परमात्मा बनती है ॥ ४ ।।
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(राग केदारो) मेरे मांझी मजीठी सुण इक बाता। मीठड़े लालन बिन न रहूँ रलियाता ॥मेरे० ॥१॥ रंगत चुनड़ी दुलड़ी चीड़ा, काथ सुपारी अरु पान का बीड़ा । मांग सिन्दूर संदल करे पीड़ा, तन कठड़ा कोरे विरहा कीड़ा ।।
मेरे० ॥२॥