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श्री आनन्दघन पदावली - =१
विरह कु भावे सो मुझ किया, खबर न पावू धिग मेरा जिया । हदिया, देव बतावे कोई पिया, वे प्रानन्दघन करूँ घर दिया || भोरे० ।। ४ ।।
अर्थ - -- शुद्ध चेतन स्वरूप आत्मा के विरह में सुमति कहती है कि हे भोले मनुष्यो ! मैं अपने दुःख के कारण रोती हूँ और तुम लोग भला हँसते हो ? मेरी पीड़ा का तुम्हारे मन पर कोई प्रभाव नहीं होता, ऐसा मुझे प्रतीत होता है । सुमति आत्म-स्वामी के घर आने की प्रतीक्षा करती है, परन्तु वे दृष्टिगोचर नहीं होते । इस कारण व्यथित होकर विरहिणी सुमति रुदन करती है, प्रज्ञानी मनुष्य उसे देखकर उस पर हँसते हैं। सुमति मनुष्यों को कहती है कि तुम लोग तनिक सोचो तो सही कि सलोने साजन के बिना घर में रहना किस काम का ? प्रियतम के बिना मेरो गृहस्थ किस काम को ? बिना स्वामी के कहीं गृहस्थी होती है क्या ? अर्थात् सलाने साजन के बिना असंख्यात प्रदेश रूपी घर में कैसे वास किया जाये ? ।। १ ।।
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सुन्दर सुखद शय्या है, चांदनी रात है, पुष्प वाटिका है तथा शीतल मन्द वायु बह रही है । समस्त सखियाँ मन बहलाने का तथा स्वस्थ करने का प्रयत्न कर रही हैं । चैतन के स्वागतार्थं समस्त आकर्षक सामग्री विद्यमान है, परन्तु ऐनी सुखद परिस्थिति में मेरे चेतन - स्वामी के नमाने पर उनके विरह में व्याकुन मेरा तन तप्त हो रहा है और विरह को मारी मैं मतवाली बनो मानां मृत स्त्री की सी दशा का अनुभव कर रही हूँ ।
श्रीमद् श्रानन्दघन जो ने यहाँ प्रान्तरिक पात्र का अद्भुत स्वरूप स्पष्ट किया है। अनुभव - ज्ञान- परिणति का स्वामी आत्मा है; प्रनेक आगमों का परिशीलन करने पर अनुभव- परिणति प्रकट होती है, जिसे आत्मा को साक्षात् संगति के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता । अनुभवपरिणति पुरुष समागम को प्रोत्साहित करने वाले बाह्य साधनों की तरह अन्तर-साधनों का भी वर्णन करतो है । तन्मय दशारूप सुकोमल शय्या है, निर्मल श्रुतज्ञान रूपी चांदनी छाई हुई है, चारित्र - पालन वृत्ति रूपी पुष्प वाटिका में से शुभ अव्यवसाय रूपो सुगन्ध प्रवाहित हो रही है और शुद्ध प्रेमरूपी शोतल वायु बह रही है । ऐसो सुखद परिस्थिति में चेतनस्वामी के बिना अनुभव - ज्ञान - परिणति प्रत्यन्त सन्तप्त है और मृतप्राय हो जाती है ॥ २ ॥
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