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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-८०
अत्यन्त प्रेम होना चाहिए। इस उत्कृष्ट प्रेम के द्वारा ही निजस्वरूप प्रकट होता है। जैन परिभाषा में इसे 'प्रशस्त राग' कहा है। इस मार्ग रपचलने वाले विरले ही हुए हैं।
इस मार्ग का सर्वप्रथम दर्शन गणधर गौतम के चरित्र में होता है। उन्हें सहजात्मरूप परम गुरु भगवान महावीर के शरीर पर अगाध मोह था। भगवान उन्हें बार-बार चेतावनी देकर देह के प्रेम से अलग रहने का उपदेश देते थे। उस प्रेम के आगे गौतम मुक्ति की भी अवगणना करते थे। सम्पूर्ण जैन वाङ्मय में यह प्रसंग अद्भुत एवं अद्वितीय है। जैन साधु-संस्था के नियम अत्यन्त कठोर हैं। इस संस्था में व्यक्ति की स्वतन्त्रता को अधिक स्थान नहीं मिला है। इसी कारण सन्त परम्परा अधिक नहीं पनप सकी। श्रीमद् आनन्दघन जी, चिदानन्द जी आदि सन्त साधु-संस्था से प्रायः दूर ही रहे। सन्तगण बाड़े-बन्दी के घेरे में न रहकर लोक-कल्याण की ही भावना भाते हैं। इस कारण साम्प्रदायिक लोगों का सहयोग उन्हें नहीं मिलता अथवा अल्प मिलता है। आजकल जैन लोग या तो बाह्य क्रिया-काण्डों में रत हैं अथवा कुछ व्यक्ति शुष्कज्ञान में लीन हैं। तात्पर्य यह है कि 'प्रेमलक्षणा भक्ति' जैनियों में विरल हो गई है। योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी ने अपने समस्त पदों में उसी 'प्रेमलक्षणा भक्ति' का गुणगान किया है।
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(राग-केदारो) भोरे लोगा झूरू हुँ तुम भल हासा । सलुणे साहब बिन कैसा घर वासा ॥ . भोरे० ॥ १ ।। सेज सुहाली चांदणी राता, फूलड़ी बाड़ी सीतल वाता। सयल सहेली करे सुख हाता, मेरा मन ताता मुना विरहा माता ।।
भोरे० ।। २ ॥ फिरि फिरि जोवों धरणी अगासा, तेरा छिपना प्यारे लोक
तंमासा। उचले तन तइ लोहू मांसा, साइडा न पावे, धरण छोड़ी निसासा ॥
भोरे० ॥ ३ ॥