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__ श्री आनन्दघन पदावली-७६
मनुष्यों में शुद्ध प्रेम नहीं होता, वे समता नहीं रख सकते, वे परमात्मा से साक्षात्कार नहीं कर सकते । शुद्ध प्रेम का प्याला पीकर जो आत्म-प्रभु से साक्षात्कार करने का प्रयत्न करते हैं, वे यात्म-प्रभु को प्राप्त कर सकते हैं। शुद्ध प्रेम-लक्षणा भक्ति का अमृत-रस प्रास्वादन किये बिना, प्रात्म-प्रभु प्राप्त नहीं किये जा सकते। समता एवं आत्मा का संयोग कराने वाला शुद्ध प्रेम ही है। शुद्ध प्रेम के बिना कोई भी व्यक्ति समता के घर में प्रविष्ट नहीं हो सकता। इस कारण ही सुमति ने शुद्ध प्रेम के प्याले की बात कही है।
शुद्ध प्रेमी आत्मा में तन्मय होकर एकता का अनुभव करता है। वह मन, वचन और काया का भोग देकर अपने स्वरूप में प्रविष्ट होता है। शुद्ध प्रेम-भक्ति की उत्कृष्टता धारण करने वाला मनुष्य इतना अधिक आत्म-प्रेमी बन जाता है कि उसे जहाँ-तहाँ आत्मा का ही स्मरण होता है। प्रात्मा में 'तू ही-तू ही' रटन करने वाला मनुष्य आत्मा का उपासक बन कर समता का द्वार खोलता है और समता की जाग्रति करता है। प्रत्येक कार्य करने के समय वह समता रखने की आदत डालता है। वह प्रमाद के स्थानकों को भी अन्तर की समता से जीत सकता है और मस्तिष्क का सन्तुलन रख सकता है। वह हर्ष एवं उद्वेग से दूर रहकर समता-भाव में स्थिर रहता है। आत्म-रूप प्रभु के दर्शन में समता तत्पर रहती है ।। २ ।।
सुमति कहती है कि मैं अनेक मनुष्यों से पूछ-पूछ कर थक चुकी हूँ। अब और कब तक पूछती रहूँ? किस स्थान पर जाकर मैं उनकी खोज करूं, किसको पत्र भेजू ? अानन्दघनजी कहते हैं कि आपकी असंख्यात प्रदेश रूपी शय्या प्राप्त हो जाये, तो फिर किसो वसीठडे (दूत) की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। मैं आपके दर्शनों की अत्यन्त प्यासी हूँ। मैं आपके दर्शनों के लिए अत्यन्त प्रातुर हूँ। मैंने आज तक आपकी अनेक स्थानों पर खोज की, परन्तु प्रापका कहीं पता नहीं लगा। अब तो मुझे प्रात्म-स्वामी की शय्या प्राप्त हो जाये तो मैं उनके पास पाकर ही रहूँ। जब तक ममत्व है तब तक सुमति अपने प्रात्म-स्वामी चेतन को प्राप्त नहीं कर सकती ।। ३ ।।
विवेचन-श्रीमद् आनन्दघनजी ने उपर्युक्त पद में एक विशेष रहस्य का उद्घाटन किया है कि शुद्धात्मस्वरूप प्रकट करने के लिए शुद्धस्वरूप के प्रति अथवा जिसने शुद्ध स्वरूप प्रकट कर लिया है उससे