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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-७८
" अर्थ-सुमति अपने स्वामी चेतन को कहती है कि हे चेतन ! मैं आपके मधुर वचनों पर वारी जाती हूँ। हे ज्ञान-धन ! आपके भीतर अनन्त गुना ज्ञान भरा है अतः आपकी वाणी मधुर प्रतीत होती है। हे प्रात्म-स्वामी! आपका शुद्ध स्वरूप जानने के पश्चात् आपको प्राप्त किये बिना मुझे चैन नहीं पड़ता। हे शूर-जन ! हे स्वजन! आपकी पूर्ण प्राप्ति के बिना मेरा कोई भी इष्ट कार्य होने वाला नहीं है। आपकी संगति से मुझे सहज प्रानन्द होता है और आपके अभाव में रागद्वष प्रादि बुरे लगते हैं। आपके वीतराग भाव के अतिरिक्त अन्य राग
आदि भाव मुझे अनिष्ट-कारक प्रतीत होते हैं। राग-द्वष से किसी को कदापि आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता। समता में विलक्षण शक्ति है। दो घड़ी में वह केवलज्ञान प्राप्त करा सकती है। प्रात्म-ज्ञान प्राप्त करके मस्तिष्क को सन्तुलित रखना चाहिए।
समता चेतन की राग-द्वेष रहित शुद्ध परिणति है जो आत्मा के असंख्यात प्रदेश रूपी अंगों में व्याप्त रहती है। यह अपना स्वभाव प्रकट करके अनन्त आनन्द की अनुभूति कराती है। इसके समान उत्तम कोई चारित्र अथवा चारित्र की क्रिया नहीं है। धर्म की प्रत्येक क्रिया में समता-भाव रखने की विशेष आवश्यकता है। जो लोग विवेक सहित समता-भाव रख कर व्यावहारिक कार्य करते हैं, वे अपने आत्मा को उच्च मार्ग पर ले जाते हैं। समता रखने वाला व्यक्ति मानसिक दुःख को जीत सकता है। अतः आत्मा की शुद्ध परिणति रूप समता धारण करनी चाहिए। इस प्रकार की समता अपने प्रात्म-स्वामी को मिलने के लिए अत्यन्त उत्सुक है ॥ १॥ .
सुमति कहती है कि हे प्रात्म-स्वामी! अापका मह देखे बिना मेरे मन को तनिक भी चैन नहीं पड़ता, तनिक भी शान्ति नहीं मिलती। आपका मुंह देखने पर ही मेरे मन को शान्ति मिलेगी। मैंने आपके प्रेम के प्याले पी-पीकर इतने दिन व्यतीत किये हैं. और अब भी विरह के ये दिन आपके प्रेम से ही व्यतीत हो रहे हैं। आपके प्रेम से ही मैं जीवित रही हूँ। हे लालन ! हे प्रिय पात्मन ! आपके प्रेम की प्राशा में ही मेरे दिन व्यतीत हुए हैं। सुमति के उद्गारों का तात्पर्य यह है कि आत्म-स्वामी की प्राप्ति से पूर्व परमात्मा अथवा प्रात्मा पर शुद्ध प्रेम रखने की आवश्यकता है। आत्मा पर अत्यन्त प्रेम हुए बिना प्रात्मा की प्राप्ति नहीं होती। समस्त जीवों पर शुद्ध प्रेम रूपी अमृत की वृष्टि करने वाला व्यक्ति हिंसा आदि दुष्ट दोषों से मुक्त होता है। जिन