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श्री आनन्दघन पदावली-७७
मन नहीं लगता। जब मैं अपने प्रात्म-स्वामी के गुणों का विचार करती हूँ तब आनन्दमय हो जाती हूँ। जब उनके गुणों का विचार करतेकरते ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकता के रूप में एक-तान हो जाती हूँ तब मैं प्रानन्द रूप अमृत-रस का पान करती हूँ और उस समय अनुभव दशा के योग से मैं अपनी अपूर्व स्थिति का अनुभव करती हूँ। उस समय मैं जगत् को भी भूल जाती हूँ और स्थिरोपयोग में प्राधि, व्याधि एवं उपाधि के दुःख भी नहीं रहते। आत्मा और मेरी एकता होने पर अनेक कर्मों के प्रावरण छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और अपूर्व दर्शन उत्पन्न होते हैं। मुझे तो उसी अनुभव-अमृत रस के पान में मग्न रहना है ।। २ ।।
सुमति कहती है कि प्रियतम के विरह की वेदना का कोई पार नहीं है क्योंकि विरह की वेदना रूपी सागर का कोई किनारा नहीं दीखता। उसकी अगाध गहराई का भी पता नहीं लग रहा। अतः हे प्रात्मन् ! शीघ्र मुझे दर्शन दो। योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी कहते हैं कि सुमति कह रही है कि हे आत्मन् ! आप प्रत्यक्ष दर्शन दें। उस विरह रूपी वेदना के सागर को पार करने के लिए मैं जिनागमरूपी नौका की याचना करती हूँ। आप मेरी याचना स्वीकार करें। अर्थात् सतत नाम-स्मरण की योग्यता प्राप्त हो ताकि सदैव गुण-स्मरण होता रहे ॥ ३ ॥
( ३० ) - (राग-मालवी गौड़ी [काफी]) वारी हूँ बोलड़े मीठड़े। तुझ वाजू मुझ ना सरे, सुरिजन, लागत और अनीठड़े ।।
वारी० ।। १ ।। मेरे जिय कु कल न परत है, बिन तेरे मुख दीठड़े । पेम पियाला पीवत-पीवत, लालन सब दिन नीठड़े ।।
वारी० ॥ २ ॥ पूछू कौन कहाँ धु ढूढू, किसकूँ भेजू चीठड़े । आनन्दघन प्रभु सेजड़ी पावू, भागे आन बसीठड़े ।।
वारी० ॥ ३॥