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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-७६ में अपनी ही जाँघ खुली करनी पड़ती है। अब मैं क्या करू? कहाँ जाऊँ ? अपनी व्यथा-कथा किसके समक्ष कहूँ ? हे सखी श्रद्धा ! मेरे चेतन स्वामी के घर नहीं आने के कारण विरह रूपी जार-पुरुष रात्रि के समय मेरे मन को सन्तप्त करता है। कोई भी व्यक्ति मेरा अपने स्वामी के साथ मेल-मिलाप नहीं कराता ।। ३ ।। ( २६ ) (राग-टोड़ी) ठगोरी, भगोरी, लगोरी, जगोरी। ममता माया आतम ले मति, अनुभव मेरी ओर दगोरी ।।१।। भ्रात न मात न तात न गात न जात न, बात न लागत गोरी। मेरे सब दिन दरसन परसन, तान सुधारस पान पगोरी ।।२।। प्राननाथ बिछुरे की वेदन, पार न पावू पार्दू थगोरी। आनन्दघन प्रभु दरसन औघट, घाट उतारन नावमगोरी ।।३।। अर्थ - प्रात्मा के पीछे अनादिकाल से लगे, ज्ञान आदि ऋद्धियों को चुराने वाले, हे माया, ममता आदि ठगो! अब तुम भाग जानो। तुम सब दूर हट जानो। अब तुम्हारा यहाँ कोई जोर चलने वाला नहीं है। अब मेरे आत्म-स्वामी जाग्रत हो गये हैं। इतने समय तक तो आतमराम अचेत से होकर माया एवं ममता का साथ देते रहे, परन्तु अब वे जाग्रत हो चुके हैं। अब हे ठगो! हे धूर्तो ! अब तुम उन्हें अधिक धोखा नहीं दे सकोगे। मेरे चेतन-स्वामी अनन्त शक्ति के धाम हैं, सिद्ध परमात्मा के बन्धु हैं। हे ठगो ! अब वे तुम्हारा समूल नाश करेंगे। अतः तुम अब भाग जायो। अब तुम्हारी दाल यहाँ पर गलने वाली नहीं है। हे ठगो ! तुम्हारी शिक्षा से मेरे चेतन-स्वामी अब तक मेरे तथा अनुभव के साथ धोखा करते आये हैं, किन्तु अब मैं तुम्हारे प्रपंच जान गई हूँ ॥ १ ॥ सुमति कहती है कि अब तो मुझे भ्रात, तात, माता, जाति तथा अपनी देह की भी बात करना अच्छा नहीं लगता। अब तो . रात-दिन मुझे अपने चेतन-स्वामी के दर्शन एवं उनके स्पर्श की धुन लगी रहती है । अब तो मैं उनके स्वरूप में लीन हो गई हैं। अब तो मुझे उनके दर्शन एवं स्पर्श की ही लगन लगी है। अब संसार की किसी भी वस्तु में मेरा
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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