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श्री प्रानन्दघन पदावली-७५
चेतन गात मनात न एते, मूलवशात् जगात बढ़ावे । कोऊ न दूती दलाल बसीठी, पारखी पेम खरीद बणावे ।।
परम० ॥२॥ जांघि उघारि अपनी कही एती, विरहजार निसि मोहि सतावै । एती सुन प्रानन्दघन नावत, और कहा कोऊ डूड बजावै ॥
परम० ।।३।।
अर्थ-हे मनमोहन, गुणवान, सुन्दर गति वाले चेतन ! जब सांसारिक भोगों का प्रसंग पाता है तब आप अत्यन्त नम्रतापूर्वक उन सब में रुचि लेते हो और मेरी बार-सम, दम, सन्तोष, समता आदि के समय प्राप ऐसे निष्ठुर हो जाते हो जैसे मुझसे आपका कोई सम्बन्ध ही नहीं हो। चेतना मानती है कि चेतन को भ्रमित करने वाली कुमति ही है, जिसके कारण वे गुणवान होते हुए भी मेरे पास आ नहीं सकते ॥ १॥
सुमति श्रद्धा को कहती है कि हे सखि ! मैं चेतनदेव से बार-बार निवेदन करती हूँ, गा-गाकर उन्हें रिझाने का प्रयत्न करती हूँ तो भी मनाने पर भी वे नहीं मानते। अब मैं क्या करूं? यह तो मूल वस्तु के मूल्य की अपेक्षा कर का मूल्य बढ़ने जैसी बात हो गई। अब न तो कोई ऐसी दूती है, न दलाल है और न ऐसा कोई सन्देशवाहक हरकारा है जो उन्हें समझा कर परीक्षापूर्वक प्रेम का सौदा करा सके। मुझे कोई ऐसी दूती चाहिए जो चेतन स्वामी को मेरे विशुद्ध प्रेम का विश्वास दिला सके ।। २ ।।
सुमति अपनी सखो श्रद्धा को कह रही है कि अपने चेतन स्वामी के सम्बन्ध में दूतो को सम्पूर्ण वृत्तान्त समझाना अपनी जाँघ नंगी करके दिखाने के समान है। अपनी दुःख की कथा जहाँ-तहाँ कहना अनुचित प्रतीत होता है, परन्तु लज्जा त्याग कर अपनी जाँघ खुली करके अपनी कथा इस कारण कह रही हूँ कि मुझे विरहाग्नि की ज्वाला रात भर सताती रहती है। प्रानन्दघनजी महाराज कहते हैं कि सुमति ने श्रद्धा को कहा कि इतना सुनकर भी यदि चेतन मेरे पास नहीं आये तो क्या मैं ढिंढोरा पिटवाऊँ ? मैं तो इतना भी नहीं चाहती कि मेरे प्रात्म-स्वामी चेतन के दोष अन्य मनुष्य जान पायें। मैं क्या करूं? मेरे असंख्यात प्रदेश रूप घर में स्वामी आते नहीं और उनकी बात अन्य के समक्ष कहने