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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-७४
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मेरे तो तूं राजी चहिये, और के बोल मैं लाख सहूँ री। प्रानन्दघन प्रभु बेगि मिलो प्यारे, नहिं तो गंग तरंग बहूँरी ।।
तेरी० ॥३॥ अर्थ–सुमति अपने आत्मपति को कहती है कि-हे चेतन ! तू यह निश्चय मान ले कि मैं तेरी ही है। यह बात मैं अनेक बार कह चुकी हूँ कि मैं तेरी हूँ, तेरी हूँ। अब मैं पुनः कहती हूँ कि मैं तेरी हूँ। यदि मेरी इस बात में तू कोई फर्क समझता हो तो मैं काशी जाकर करवत ले सकती हूँ। इस प्रकार कहकर सुमति अपने स्वामी के प्रति विश्वास व्यक्त करती है और कहती है कि प्रात्मन् मैं तेरी प्रियतमा हूँ। अतः अब तू मेरा पूर्ण विश्वास करके मेरी सीख के अनुसार चल ॥१॥
हे चेतन ! चारों वेदों, अठारह पुराणों, कुरान आदि किताबों में, जैनागमों में तथा उपनिषदों में तेरे वर्णन के अतिरिक्त मैं कुछ नहीं पाती। इन सब में वचनचातुरी से गा-गाकर तेरी ही सेवा के सम्बन्ध में कहा गया है। शास्त्रों में तो तेरे स्वरूप का मार्गदर्शन है, परन्तु अनुभव-ज्ञान के बिना तेरे स्वरूप का निर्धारण नहीं हो सकता। अतः अब तो मैं तेरे स्वरूप के शुद्ध रस रंग में लीन होकर रहूंगी क्योंकि तेरे स्वरूप में मुझे आनन्द प्राप्त होता है ।। २ ।।
__ श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि सुमति अपने आत्म-स्वामी को कहती है कि मुझे तो केवल तेरी प्रसन्नता चाहिए। यदि तू मुझ पर प्रसन्न होगा तो फिर तो मैं लोगों के लाख-लाख ताने, मार्मिक शब्द एवं व्यंग्य सहन कर लूगी। यहाँ तक कि मैं उनके अपशब्द भी सहन कर लूगी। हे प्रिय आनन्दधन प्रभो! अब तेरा विरह मुझसे सहा नहीं जाता। अब तू शीघ्र आकर मुझसे मिल। अब भी इतना कहने पर भी, यदि तू मुझे नहीं मिला तो मैं गंगा के प्रवाह में बह जाऊंगी और अपने प्राणों का त्याग करूंगी। तेरी प्राप्ति के लिए मैं अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दूंगी ॥३॥
( २८ )
( राग-टोड़ी ) परम नरम मति और न भावे । मोहन गुन रोहन गति सोहन, मेरी बेर ऐसे निठुर-लखावै ॥
परम० ॥१॥