SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-३८६ चित्त चाहे मेरे प्यारे को स्वरूप रूप, स्याम के बदन पर बरसत ईख। 'प्रानन्दघन' पिया के रस प्यारो, टारि न टरत करमे रीख । नैना० ॥ २॥ (३) राग - मारू हां रे प्राज मनवो, हमेरो वाऊरो रे ।। टेक ।। पाप न पावे पिया लखहु न भेजे, प्रीत करन उतावरो रे । पाज०. ॥ १ ॥ प्राप रंगीला पिया सेजहुँ रंगीली, और रंगीलो मेरो सांवरो रे । प्राज० ॥ २ ॥ 'प्रानन्वघन' बाबो निज घर भावे, तो मिटे संतावरो रे । प्राज० ॥ ३ ॥ (४) राग - काफी चेतन प्यारा रे मोरा तुम सुमति संग क्यू न करो, रहो न्यारा ॥ चेतन० पर रमणी से बहुत दुःख पायो, सो कछु मन में विचारा। या अवसर तुहि प्राय मिल्यउ है, भूले नहीं रे गिवारा । तुम कछु समझ समझ भरतारा ॥ चेतन० ॥१॥ माप विचार चले घर अपने, और से कियो निस्तारा। चेतन सुमता मांहि मिले दोउ, खेलत है दिन सारा । मानन्द हां लियो भव-पारा ॥ चेतन० ॥२॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy