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जीवन-झांकी-१६
'मुझे तो काम ईश्वर से, जगत् रूठे तो रूठन दे।' लोग उनके सम्बन्ध में क्या कहते हैं, इस पर वे तनिक भी ध्यान नहीं देते थे। उनका तो लक्ष्य था-मुक्ति की आराधना। वे तो अपने विरोधियों एवं निन्दकों को भी कहते कि आत्म-कल्याण करो। मैं विपरीत विचार वालों की बातों का कब तक उत्तर देता रहूंगा। मनुष्यजन्म लोगों की प्रशंसा पाने के लिए नहीं है, आत्मा के शुद्ध धर्म में रमण करने के लिए मनुष्य-जन्म है। प्रात्म-कल्याण के अभिलाषियों को अपने गुणों की ओर ध्यान देना चाहिए।
शासन के प्रति उनका राग :
श्रीमद् आनन्दघनजी के हृदय में जिन-शासन के प्रति अनन्य राग था। शासन के प्रति अगाध प्रेम के कारण ही उन्होंने श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्याय को शासन-सेवा के लिए प्रोत्साहित किया था। श्रीमद् आनन्दघनजी जैन-शासन की सेवा के लिए उत्तम विचारों के भण्डार थे । प्रतीत होता है कि उनका परिचय होने के पश्चात् ही उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने अध्यात्म ग्रन्थों की रचना की। अपनी आन्तरिक प्रेरणा से ही श्रीमद् ने चौबीसी, बहोत्तरी आदि का प्रणयन करके जैनशासन की अनन्य सेवा की है, जिसका आज जैन एवं अजैन सभी लोग लाभ ले रहे हैं। शासन-सेवा के प्रति प्रेम के कारण ही उन्होंने पंन्यास श्री सत्यविजयज़ी को क्रियोद्धार में सहायता की थी।
आनन्दघनजी की प्रकृति एवं स्वभाव :
वे प्रकृति से सरल-स्वभावी एवं मिलनसार थे। उनके चेहरे पर गम्भीरता के साथ मधुरता रहती थी। वे प्रत्येक पंथ के अनुयायियों के साथ बिना किसी प्रकार के भेदभाव के अध्यात्म की चर्चा करते थे, जिसके कारण उनके पास अजैन भी उमड़ते रहते थे। जैनों की अपेक्षा अजैन उनका अधिक सम्मान करते थे और उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति रखते थे। वे मत-सहिष्णु थे। उनके सम्पर्क से सभी आगन्तुक प्रसन्न रहते थे। वे कदापि किसी के साथ कलह करना नहीं चाहते थे। उनको देखते ही प्रतीत होता था कि वे कोई वैरागी सन्त, महात्मा हैं। वे दयालु एवं सत्य-वक्ता थे। सत्य बात कहने के कारण यदि कोई आपत्ति आती तो वे उसे हँसते-हँसते सहन करते थे और तनिक भी भयभीत नहीं होते थे। वे मस्त तबियत के अल्हड़ योगी थे। वे न तो किसी की निन्दा करना