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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१८
हैं। अतः उन्हें कोई उपाश्रयों में ठहरने न दें और कोई जैन उनके
पास उपदेश सुनने के लिए न जाये। कुछ स्थानों पर बाल-जीवों पर • इसका प्रभाव पड़ा, जिससे उन स्थानों पर उन्हें उपाश्रयों में ठहरने तक नहीं दिया गया। आनन्दघनजी यत्र-तत्र मठों आदि में ठहर कर अपना चारित्र पालन करते रहे। जो-जो परिषह आये उन्हें वे सहन करते रहे। प्रानन्दघनजी की निर्भयता : . वे स्वभाव से प्रफुल्लित मन के थे। वे जीवन में निर्भयता की
ओर अग्रसर होते गये। वे जैनशास्त्र-सम्मत ध्यान-दशा में भय-मुक्त बने प्रविष्ट होते थे और घनघोर जंगलों में निवास करते थे। वे इतने निर्भीक हो गये थे कि सिंहों की गुफाओं में तथा अन्य हिंसक प्राणियों की गुफाओं में निवास करते थे। वे अंधेरी रात्रि में श्मसान में काउस्सग्गध्यान करते थे। देह का ममत्व छूटने पर ही निर्भीकता पाती है। वे लोक-निन्दा की तनिक भी परवाह नहीं करते थे। वे तो आत्म-साक्षी से वीतराग वचनों की आराधना में सदा तत्पर रहते थे। कुछ अज्ञानी लोग उन्हें सताते थे, पर वे उन पर करुणा-भाव रखकर ही अपनी आत्मा को उच्च बनाते थे।
उनके सम्पर्क से लाभान्वित :
श्रीमद् आनन्दघनजी के सम्पर्क से उपाध्याय यशोविजयजी तथा श्री सत्यविजयजी पंन्यास आदि अध्यात्म-ज्ञान से अत्यन्त लाभान्वित हुए। उनके सम्पर्क से उनके शान्त विचारों का उन पर उत्तम प्रभाव पड़ता था। उनके सम्बन्ध में विरुद्ध विचार वाले व्यक्ति भी जब उनके सम्पर्क में पाये तो अपनी भूल के लिए पश्चाताप करते और श्रीमद् आनन्दघनजी के भक्त बन जाते थे। उनके वैराग्यमय शब्दों का प्रभाव उनके पास पाने वालों पर पड़े बिना नहीं रहता था। प्रानन्दघनजी जैन-शास्त्रों एवं सिद्धान्तों के आधार पर ही उपदेश देते थे। उनके उपदेश का लाभ लेने वाले अधिकांश उच्च कोटि के जीव थे।
जगत् के लोगों के प्रति उनकी बेपरवाही :
श्रीमद् अानन्दघनजी सदा आत्मिक विचारों में लीन रहते थे। वे तो आध्यात्मिक पद गा-गाकर अपनी धुन में मस्त रहते थे। वे मानते थे कि