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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२०
अथवा सुनना चाहते थे और न अपनी प्रशंसा सुनने में उन्हें कोई रुचि थी।
प्रानन्दघनजी के जीवन की प्रमुख विशेषताएं:
उनका आनन्द ठोस था, जिसके साथ पहाड़ भी यदि टकराये तो चूर्ण-चूर्ण हो जाये। उनका आनन्द जन्म, जरा, मृत्यु को भी तोड़ डालने वाला था। यही कारण था कि मृत्यु भी वहाँ महोत्सव स्वरूप थी।
आनन्दघनजी की सूक्ष्म भाषा हम संसारियों की नहीं है। उनके भाव हमारी तंग गलियों में समाविष्ट होने वाले नहीं हैं। उनकी विराट भावना फिल्मी गीत गुन-गुनाने वालों के लिए समझ पाना कठिन है, दुष्कर है। उनके पदों को समझने के लिए किसी अध्यात्म-ज्ञानी का मार्ग-दर्शन अनिवार्य है। उनकी रचना को समझने के लिए ज्ञान विमलसूरिजी जैसे ज्ञानियों की टिप्पणी एवं टीका की आवश्यकता रहती है, अन्यथा अपरिपक्व जनसमूह के पल्ले कुछ नहीं पड़ सकता। इसीलिए तो श्री ज्ञानविमलसूरिजी ने अपनी टीका में कहा है
प्राशय प्रानन्दघन तणो रे, अति गम्भीर उदार । बालक बाहु पसारी जिम कहे उदषि विस्तार ॥
आनन्दघनजी प्रानन्द में ही घुले-मिले रहते थे। वे चारों ओर से आनन्द से ही घिरे रहते थे। उनके रोम-रोम से निष्कासित होने वाले प्रस्वेद में, नासिका द्वारा ली जाने वाली उनकी प्राणवायु में, उनके नेत्रों में, नाक में, मुट्ठी में और पाँवों के तलवों में आनन्द-ही-पानन्द व्याप्त था। वे स्वयं अानन्द की प्रतिमूत्ति थे। उनकी थाह पाना अत्यन्त दुष्कर था। अनुभव की चाबी के बिना श्रीमद् आनन्दघनजी के प्रासाद में भला कौन प्रविष्ट हो सकता था। उनके प्रासाद में प्रविष्ट होने की चाबी केवल श्री ज्ञानविमलसूरिजी के पास थी।
प्रानन्दघनजी ने अपने पदों की रचना अन्य व्यक्तियों के लिए नहीं की थी। वे तो अपनी मौज में गाते गये और उनके होठों पर पदों की रचना होती गई। उनके स्तवनों, पदों आदि की उन्होंने रचना नहीं की। उनका तो अनायास सृजन हो गया। आनन्द की उमियाँ उठने के साथ उनके होठ खुल गये, उनका मन-मयूर नाच उठा और उनकी कृतियों का सृजन हो गया। इस कारण ही जन-साधारण पचा न सके, ऐसा बहुत-कुछ उनकी रचनाओं में है। इस कारण लोक-कल्याणार्थ