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________________ जीवन-झाँकी-२१ भगवान महावीर का स्तवन मंजूषा में बन्द कर दिया गया ताकि अपरिपक्व जन-समूह उसके अर्थ का अनर्थ न कर ले। कुछ समय पश्चात् वह स्तवन अचानक पुनः प्राप्त हो गया, जो ग्रानन्दघन जी की समस्त रचनाओं में उनकी एक अमूल्य रचना माना जाता है। आनन्दघनजी के लिए जो सत्य है, वह हमारे लिए असत्य है। उनके लिए जो शक्ति-वर्द्धक है, वही हमारे लिए विष है। आनन्दघनजी को याचना करना पाया और याचना करके उसे प्राप्त करना आया। इस कारण तीर्थंकर परमात्मा उनके लिए कल्पवृक्ष एवं काम-धेनु बन गये। यदि तीर्थंकर परमात्मा आपके निकट होंगे तो समस्त ऋद्धि-सिद्धियाँ आपके निकट रहेंगी। समस्त सम्पत्ति प्राप्त करनी हो तो वीतराग को अन्तर में आगे करो और अन्य सब उनके पीछे करो। उनकी साधना को प्रांतरिक आकर्षण से गति मिली थी। उसमें किसी का दबाव नहीं था। उनकी साधना का प्रवाह नैसर्गिक था। अगाध गहराई में डुबकी लगाती उनकी साधना का नैसर्गिक वेग ही उन्हें लक्ष्य पर ले गया। मुझे तो आश्चर्य होता है कि ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे गाने वाले ने गाते-गाते अाँसुओं की झड़ी लगा दी, फिर भी प्रानन्दघनजी को महाविदेह में क्यों जाना पड़ा? महाविदेह उनके पास क्यों नहीं पाया? सच्ची भक्ति में वह शक्ति है, वह जादू है कि भक्त भगवान के पास नहीं जाता, भगवान स्वयं चल कर भक्त के पास पाते हैं । सूक्ष्म रूप में यदि देखा जाये तो महाविदेह क्षेत्र तथा श्री सीमंधर स्वामी श्री आनन्दघनजी के घट में आये । सच्ची क्रियाओं के सम्बन्ध में श्रीमद् आनन्दघनजी ने कहा कि 'जो क्रिया करने से हमारा क्रोध, मान, माया एवं लोभ घटे; जिस क्रिया से हमारे प्रात, रौद्र ध्यान की वृद्धि हो; मन की अशान्ति में वृद्धि हो; वह क्रिया संसार की वृद्धि करने वाली है। वह सच्ची क्रिया नहीं है, अध्यात्म नहीं है। सच्ची क्रिया वह है जो आत्मा के अप्रकट गुणों को प्रकट करे, हमारे प्रशान्त मन को शान्ति प्रदान करे और निर्बल अन्तर को पुष्ट करे। 'जो आत्मा की अनन्त शक्तियों को जीवन में गतिशील करे वही अध्यात्म है।' सच्चा अध्यात्म पहचानने की चाबी योगिराज श्री आनन्दघनजी ने हमें प्रदान की है। आनन्दघनजी महाराज ने विकास की भूमिका बताई है कि पहले स्वप्न, तत्पश्चात् संकल्प, फिर साधना और अन्त में साक्षात्कार होगा।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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