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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य- २२
श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं यशोविजयजी की तुलना :
श्रीमद् आनन्दघनजी एक उच्चकोटि के सन्त थे, जबकि उपाध्याय श्री यशोविजयजी जिन - शासन के रक्षक थे । श्रीमद् श्रानन्दघनजी गच्छ निश्रा के बिना रहते थे, जबकि उपाध्यायजी गच्छ की निश्रा में रहकर जैन - शासन की प्रभावना करते थे, फिर भी वे आत्म-कल्याण करते थे । श्रीमद् यशोविजयजी ने जैनधर्म की रक्षा करने के लिए कठोर परिश्रम किया था और संस्कृत में एक सौ आठ ग्रन्थों की रचना की थी । जैन शासन की प्रभावना के लिए उन्होंने प्रबल पुरुषार्थ किया था और जीवन समर्पित करने में कोई कमी नहीं रखी थी । उपाध्यायजी का कार्य अन्य कोई व्यक्ति कर नहीं सकता था । उपाध्यायजी की कार्य करने की दिशा भिन्न थी और श्रीमद् श्रानन्दघनजी की कार्य करने की दिशा भिन्न थी । उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने जैन श्वेताम्बरों की जो सेवा की, वैसी सेवा कोई अन्य नहीं कर सका । उपाध्यायजी को अपने साधुनों की ओर से भी बहुत अधिक सहन करना पड़ा था। श्रीमद् श्रानन्दघन जी ने अध्यात्म मार्ग खुला करके शान्त रस की सरिता प्रवाहित की । अध्यात्म बताने वाले तो अनेक मिल जाते हैं, परन्तु अध्यात्म की प्रतिमूर्ति बन कर अध्यात्म रस प्रवाहित करने का सामर्थ्य तो उस शताब्दी में श्री आनन्दघनजी के अतिरिक्त अन्य किसी में देखा नहीं गया । निवृत्ति के मार्ग में आनन्दघनजी के समान उस काल में अन्य कोई नहीं था । अध्यात्म-ज्ञान में प्रानन्दघनजी के समान अध्यात्म - रसिक अन्य कोई मुनि नहीं था ।
श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने जो चमत्कार बताये, वैसे चमत्कार बताने वाला उस शताब्दी में अन्य कोई नहीं था । त्यागी, वैरागी तथा देह के प्रति ममता का परित्याग करके वन एवं कन्दराओं में निवास करने वाले उनकी जितनी प्रशंसा करें, उतनी कम है । उन पर विघ्नं सन्तोषियों ने कितने आरोप और कलंक लगाये परन्तु उन क्षमाशील महापुरुष ने चेहरे पर बल तक नहीं आने दिया । जिन शासन की प्रभावना करने के लिए उन्होंने अन्य साधुनों को जो अमूल्य परामर्श दिया वह सदा स्मरण रखने योग्य है । अध्यात्म ज्ञान के प्रचारक, प्रसारक एवं उद्धारक के रूप में जिन - शासन में उनका नाम चिरस्थायी रहेगा । अठारहवीं शताब्दी में अध्यात्म-ज्ञान के उत्प्रेरक के रूप में हम श्रीमद् श्रानन्दघनजी, उपाध्याय श्री यशोविजयजी, श्रीमद् सत्यविजयजी, श्रीमद् विनयविजयजी उपाध्याय तथा श्रीमद् ज्ञानविमलसूरि आदि महान् सन्तपुरुषों को भूल नहीं सकते ।