SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन-झांकी-२३ श्रीमद् प्रानन्दघनजी की आत्मा जागृत थी। उनके उपदेश श्रोताओं एवं पाठकों के हृदय में गहराई में पहँच कर उन्हें ज्ञान की गरिमा समझाने के लिए सक्षम थे। श्रीमद् यशोविजयजी ने जैन-शासन की सेवा करके जो उपकार किया है उसे कदापि विस्मृत नहीं किया जा सकता। उनके द्वारा रचित ग्रन्थों से सदा बोध मिलता रहेगा। श्रीमद् अानन्दघनजी ने अध्यात्म-पदों की रचना करके अत्यन्त उपकार किया। श्रीमद् प्रानन्दघनजी के वैराग्य का प्रकार : श्रीमद् अानन्दघनजी में उत्तम कोटि का वैराग्य था। शास्त्रों में वैराग्य के तीन.भेद बताये गये हैं--- (१) दुःखगभित वैराग्य, (२) मोहगभित वैराग्य और (३) ज्ञानभित वैराग्य । श्रीमद् प्रानन्दघनजी में ज्ञानगर्भित वैराग्य था। उनकी वृद्धावस्था : __ आनन्दघनजी ने वृद्धावस्था में वनों में रहना छोड़ कर मेड़ता में निवास करना प्रारम्भ किया और वे आत्म-ध्यान में जीवन यापन करने लगे। ज्ञान-पिपासु भक्तों ने उनकी अत्यन्त सेवा की। मेड़ता में वे जिस उपाश्रय में निवास करते थे, वह उपाश्रय उनके स्वयं के नाम से जाना जाता था। आज भी. उसके खण्डहर दृष्टिगोचर होते हैं। मेड़ता में चौरासी गच्छों के उपाश्रय थे । उनके समय के प्राचार्यगण : ___ श्रीमद् आनन्दघनजी का जन्म सत्रहवीं शताब्दी में हुआ माना जाता है। इनका जन्म उपाध्याय श्री यशोविजयजी से पहले हुआ होना चाहिए। इनके जन्म के समय प्राचार्य श्री हीरसूरीश्वरजी थे और उनके दोक्षित होने के समय श्री देवसूरिजी, श्री तिलकसूरिजी, श्री प्रानन्दसूरि जी, श्री राजसागर सूरिजी, श्री विजयसिंह सूरिजी, श्री विजयप्रभसूरिजी और श्री रत्नसूरिजी आदि प्राचार्य थे। इससे प्रतीत होता है कि इनका सम्पर्क अनेक प्राचार्यों से हुआ होगा। उनकी स्थिरता एवं अन्तिम उपदेश : ___श्री आनन्दघनजी में जब तक शक्ति थी, तब तक तो वे गाँवों तथा नगरों से बाहर गुफाओं, कन्दरामों आदि में निवास करते रहे और वृद्धावस्था प्राने पर एवं घुटनों की शक्ति क्षीण होने पर वे मेड़ता के एक
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy