SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२४ उपाश्रय में निवास करते रहे। उपाश्रय में रहकर वे एकान्त में ध्यानलीन रहते थे। वे देह में फिर भी देह से रहित निःसंग दशा का अनुभव करते थे। उनका अन्तिम उपदेश था- "संसार में मोह जीत कर शुद्धता प्राप्त करें। संसार में कोई अमर रहने वाला नहीं है। अनेक चक्रवर्ती भी आकर चले गये। यदि अनन्त संसार का पार पाना हो तो वीतराग के वचनों का अवलम्ब लें। राग-द्वेष रूपी शत्रुओं से मुक्त होकर प्रात्मप्रदेशों में रमण करना ही मोक्ष का मार्ग है। मूनि-वेष पहन कर मोह के अधीन कदापि नहीं होना चाहिए। सर्वज्ञों ने जो मोक्ष का मार्ग बताया है, वह राग-द्वोष से रहित मार्ग है। उसको ही अंगीकार करें। ऐसी तीव्र वैराग्य-दशा धारण करें कि संसार में पुनः पुनः जन्म न लेना पड़े। राग आदि दोषों का त्याग ही वास्तविक त्याग है। संसार में निवृत्ति ही शान्ति का मार्ग है। किसी के अवगुणों पर ध्यान न दें। साधु बन कर सद्गुणों में प्रवृत्त होना ही ज्ञान-प्राप्ति का सार है। प्रमाद के वशीभूत होने वाले जीव अपनी आत्मा को समर्थ नहीं बना पाते। जिस प्रकार की प्रवृत्ति करने से राग-द्वेष घटता हो और प्रात्मा में शान्ति एवं आनन्द प्रादि सद्गुणों की उत्पत्ति होती हो, वैसी प्रवृत्ति करनी चाहिए।" भक्तों को इस प्रकार का उपदेश देकर उन्होंने प्रात्म-ध्यान में चित्त लगाया और नश्वर एवं औदारिक देह का परित्याग किया। उनकी पार्थिव देह का महोत्सव पूर्वक अग्नि संस्कार किया गया। भक्तजन शोकाकुल हो गए। उनकी रचनाएँ हमें उनका स्मरण कराती है। संसार में उनकी रचनाओं ने उन्हें अमरत्व प्रदान किया। श्रीमद् प्रानन्दघनजी का मेड़ता में स्वर्गवास : उनका देहान्त मेड़ता में हुआ प्रतीत होता है, क्योंकि वहाँ उनके नाम की एक प्राचीन देहरी है। उक्त देहरी का उनकी स्मृति में उनके भक्तों ने निर्माण किया था, जो आज भी विद्यमान है। अध्यात्म-ज्ञान के प्रेमी उक्त देहरी के दर्शनार्थ मेड़ता जाते हैं। उनके सम्बन्ध में लोगों का मत है कि वे महाविदेह के क्षेत्र में उत्पन्न हुए हैं और केवलज्ञान प्राप्त करके मुक्तिपद प्राप्त करेंगे। वे अपनी अध्यात्म-दशा तथा ज्ञानभित वैराग्य के कारण तीसरे भव में मुक्ति प्राप्त करेंगे, इसमें कोई पाश्चर्य की बात नहीं है।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy