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जीवन-झांकी-२५
उनकी भक्ति : -
वे वीतराग परमात्मा की भक्ति के प्रति समर्पित थे। आत्मा की उपासना की ओर उनका विशेष ध्यान था। वे प्रति-पल भगवद् भक्ति में तन्मय रहा करते थे। तत्कालीन मारवाड़ आदि में मीराबाई के भजनों के प्रभाव से राधा-कृष्ण का विशेष प्रचार था। श्रीमद् अानन्दघनजी ने भी उस काल की मांग के अनुसार आत्मा को कृष्ण, सुमति को राधा तथा कुमति को कुब्जा की उपमा देकर अनेक प्रकार से प्रात्म-प्रभु का गुण-गान किया है।
तत्कालीन स्थिति :
श्रीमद् आनन्दघनजी के समय में आगमों के ज्ञाता विद्वान् थे, जो अन्य दर्शनों के विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ करने में पीछे नहीं हटते थे। उस समय गच्छ-भेद जोरों पर था जिससे प्राचार्यों एवं मुनियों में फूट, ईर्ष्या तथा क्रिया की शिथिलता थी। अध्यात्म-ज्ञान के प्रति लोगों में विशेष रुचि नहीं थी। उस समय श्वेताम्बर जैनों में प्रायः एकता का प्रभाव था, परन्तु धर्म के प्रति लोगों में पूर्ण श्रद्धा थी। प्राचार्यों का प्रभाव तो अधिक था, परन्तु उत्सवों आदि के आडम्बरों के कारण लोग वैरागी साधुंओं की ओर अधिक आकृष्ट थे। अठारहवीं शताब्दी ज्ञानोदय से युक्त थीं।
प्रानन्दघनजी की जीवनी से सम्बन्धित दो अन्य पुस्तकें :
मानन्दघनजी से सम्बन्धित विशेष वृत्तान्त उपलब्ध नहीं हैं। श्रीमद् बुद्धिसागर सूरिजी, श्री मोतीचन्द गिरधारीलाल कापड़िया आदि लेखकों ने जो सामग्री उन्हें प्राप्त हुई, उसे अपने ग्रन्थों में लिपिबद्ध किया है। यह उल्लेख करना आवश्यक है कि श्री आनन्दघनजी के सम्बन्ध में गुजराती में दो स्वतन्त्र पुस्तकें भी प्रकाशित हई हैं।
लगभग ६०-७० वर्ष पूर्व श्री धीरजलाल टोकरशी द्वारा प्रकाशित 'बाल-ग्रन्थावली' में आनन्दघनजी से सम्बन्धित एक छोटी पुस्तक भी है ।
बम्बई के एक लेखक स्व. श्री वसन्तलाल कान्तिलाल ने श्री आनन्दघनजी पर एक स्वतन्त्र पुस्तक 'महायोगी आनन्दघन' के नाम से प्रकाशित की। उक्त पुस्तक में १०४ पृष्ठ हैं।