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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२६
विशिष्ट परिचय :
अध्यात्म साधना की प्रखरता के कारण वे लाभानन्द से आनन्दघन हो गये। उनमें अध्यात्म-योग एवं भक्ति का सुन्दर योग था। कोई भी अध्यात्म-योगी वीतराग से अछता नहीं रह सकता। वह किसी साम्प्रदायिकता में भी नहीं उलझ सकता। आनन्दघनजी में उक्त दोनों विशेषताएं थीं। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से जैन परम्परा के एक प्रतिनिधि के रूप में सामने आते हैं। वे अध्यात्म-परम्परा के भी प्रतिनिधि हैं। अपनी इस विशिष्ट क्षमता के कारण ही उपाध्याय श्री यशोविजयजी जैसे महान् प्रतिभाशाली विद्वान् भी असाधारणं रूप से प्रभावित हुए।
मुनि श्री जिनविजयजी का अभिप्राय :
मुनि श्री जिनविजयजी के अभिप्राय के अनुसार प्रानन्दघनजी जैन यति थे। ऐसे यति अजैन साधु-मुनियों के सम्पर्क में आते, उनका परस्पर सत्संग होता। अतः यतियों का समस्त धर्मों के प्रति समभाव होता था। वे अपनी धार्मिक भावनाओं को संकीर्णता के दायरे में न रख कर अपने आस-पास के समाज में तथा अन्य धर्मावलम्बियों में भी फैलाते थे। इतना ही नहीं परन्तु वे अन्य धर्मावलम्बियों की भावनाओं को भी समभाव से समझने का प्रयास करते थे। इसी कारण से जो बातें अपने धर्म में नहीं होती थी, वे भी यति-समाज के व्यवहार में दृष्टिगोचर होती थीं। कभी-कभी जैन मुनि (यति) शक्ति-पूजा करते हुए भी दृष्टिगोचर होते थे। ऐसे मुनियों का दृष्टिकोण व्यापक होता था। सूफी, दादूपंथी, कबीर-पंथी तथा नानक-पंथी सब साथ बैठते और एक-दूसरे के विचारों, भावनाओं तथा अनुभवों का आदान-प्रदान करते। इस कारण उनकी रचनाओं में उनकी छाया अवश्य आ जाती थी। कभी-कभी यति, चारण, भाट आदि सम्मिलित होते और भंग पीने का कार्यक्रम भी बनता। इन लोगों की मण्डली में आने वाले यति को वे 'प्राइये गुरांसा' कहकर सम्मान देते।
___ मुनि श्री जिनविजयजी का अभिप्राय था कि उस समय के यति निरन्तर विहार करते थे। वे एक वर्षावास सौराष्ट्र में करते तो दूसरा वर्षावास गुजरात में करते और तीसरा वर्षावास फिर राजस्थान के किसी नगर अथवा गाँव में करते। इस प्रकार के विहार के कारण विभिन्न क्षेत्रों की भाषा के शब्दों का उनकी रचनाओं में प्रयुक्त होना स्वाभाविक