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श्री आनन्दघन पदावली-४०५
'अभय-अद्वेष-अखेद' इन तीन गुणों को प्राप्त करके ही वास्तविक सेवा की जा सकती है। भय चंचलता हो जे परिणामनी रे, द्वेष अरोचक प्रभाव । खेद प्रवृत्ति हो करता थाकीए रे, दोष प्रबोध लखाव ।। संभव०
आत्मा के परिणाम की चंचलता ही भय है और उसका परित्याग करके आत्मा का स्थिर परिणाम करना ही अभय है। परमात्मा के गुणों के प्रति अरुचि-भाव ही द्वेष है। उनके गुणों के प्रति अत्यन्त रुचि को अद्वेष गुण समझे। परमात्मा के गुणों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते-करते थकना नहीं यह अखेद है। इन तीन गुणों की प्राप्ति के द्वारा यदि सेवा की जाए तो सेवक अपने इष्ट की सेवा करके इच्छित फल प्राप्त कर सकता है।
जैन दर्शन के तत्त्वों एवं अन्य दर्शनों द्वारा मान्य प्रात्म-तत्त्व में विरोध- .. . योगिराज आनन्दघनजी के हृदय में जैन दर्शन के तत्त्वों का सम्यक् परिणमन हुआ था। द्रव्यानुयोग में वे गहराई में गये थे। जैन दर्शन से एकान्तनय से अन्य दर्शनों द्वारा मान्य आत्म-तत्त्व में किस प्रकार विरोध आता है-इसका उन्होंने श्री मुनिसुव्रत स्वामी के स्तवन में स्पष्ट चित्रण किया है। इस प्रकार का स्पष्ट चित्रण करने के लिए न्याय सम्बन्धी ग्रन्थों का पूर्ण अध्ययन आवश्यक है। एकान्त दृष्टि से अन्य दर्शनों को देखते हुए वे श्री जिन-दर्शन से भिन्न हैं-यह बताकर श्रीमद् ने जिंन-दर्शन की.श्रेष्ठता का सुन्दर वर्णन किया है तथा इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ के स्तवन में 'षडदर्शन जिन अंग भणोजे' कह कर अनेकान्त नय की सापेक्ष दृष्टि से षड्दर्शन भी जिनदर्शन रूप पुरुष के अंग हैं यह सिद्ध कर दिया है। उन्होंने कहा है किजिनवर मां सघलां दर्शन छे,
दर्शने जिनवर भजना रे। . सागर मां सघली तटिनी सहो,
तटिनी मां सागर भजना रे ॥ ६ ॥
(नमिनाथ स्तवन)