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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-४०४ अभाव होने से अनेक शंकानों का ठीक तरह से उचित समाधान नहीं हो पाता। जिन महानुभावों ने गुरुकुल में रहकर सिद्धान्तों एवं अध्यात्म ग्रन्थों का अध्ययन किया है वे महाज्ञानी ही श्रीमद् आनन्दघनजी के आशय को समझ सकते हैं। श्री नमिनाथ जिनेश्वर के स्तवन की आठवीं गाथा में वे कहते हैं कि'चूरणी भाष्य सूत्र नियुक्ति, वृत्ति परम्पर अनुभव रे । समय-पुरुषनां अंग कह्यां ए, जे छेदेते दुरभव्य रे ।।' सिद्धान्त रूप पुरुष के छः अंग हैं। पूर्वधर रचित मुक्तक पदी की व्याख्या को चर्णी कहते हैं। सूत्रोक्त अर्थ को भाष्य कहते हैं और गणधरों आदि के द्वारा रचित सूत्र कहलाते हैं। भद्रबाहु स्वामी आदि पूर्वधरों ने सूत्रों पर नियुक्ति की है। सूत्रों की विशेषार्थक वृत्ति अथवा टीका को समझना तथा गुरु-परम्परा से प्राप्त अनुभव इन छः अंगों में से किसी भी अंग का जो छेदन करता है उसे दुर्भव्य समझना चाहिए। - श्रीमद् का कथन है कि तथाविध शास्त्रोक्त क्रिया के बिना चारित्र का पालन नहीं हो सकता। श्रीमद् संवेग-पक्षी थे। संवेग पक्षी के समस्त लक्षण उनमें थे। संवेग पक्षी की भावना रखकर जो साधु श्रुतानुसार यथातथ्य रीति से द्रव्य एवं भाव से चारित्र का पालन करने में असमर्थ हैं, वे सचमुच अन्य साधुओं के गुणों की प्रशंसा करते हैं तो अल्प भवों में मुक्ति प्राप्त करते हैं और जो क्रिया का दम्भ करके अन्य मुनियों की निन्दा करके हेलना करते हैं वे अनेकभवों तक भ्रमण करते हैं। श्रीमद् आनन्दघन जी जसे अध्यात्म-ज्ञानी एवं आत्मा के शुद्ध धर्म की गहराई में उतरे हुए संवेग-पक्षी की जितनी प्रशंसा करें, उतनी कम है। श्रीमद् के विचार परमात्मा की सेवा के सम्बन्ध में श्रीमद् आनन्दघनजी के अत्यन्त उच्चकोटि के विचार थे। 'सेवा-सेवा' सब कहते हैं परन्तु सेवा की भूमिका की प्राप्ति हुए बिना परमात्मा की सच्ची सेवा नहीं की जा सकती। श्री सम्भवनाथ भगवान के स्तवन में श्रीमद् ने बताया है कि
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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