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श्री आनन्दघन पदावली-२१३
हे मनुष्य ! तू जिस धन को एकत्र कर रहा है, वह तेरा नहीं होगा । अतः तू जाग्रत होकर धन की ममता का परित्याग कर और इसका सदुपयोग कर। प्राण जाने के पश्चात् धन तेरे किसी काम नहीं आयेगा। अतः तू स्वयं को जगत् में कृपण क्यों कहलवाता है। तू अपनी अशुभ दशा का परित्याग कर ताकि लोग तुझे कृपण न कह सकें और पर-भव में तुझे सुख प्राप्त हो।
' अर्थ-जिस व्यक्ति के अन्तर में सत्य का निवास है, उसे असत्य कदापि नहीं सुहायेगा। जिसके हृदय में सत्य की ज्योति है उसे असत्य के प्रति कोई रुचि नहीं होती। सत्य-तत्त्व को जानने वाले व्यक्ति सत्य को ही ग्रहण करते हैं ॥४॥
विवेचन सत्य के चाहक को असत्य के प्रति घणा होती है। सत्य का प्रकाश जिस अन्तर में होगा, वहाँ असत्य का अन्धकार भला कैसे ठहर सकता है ? सत्य-तत्त्व मनुष्य को सत्य ग्रहण करने के लिए ही प्रेरित करता है।
अर्थ--श्रीमद् योगिराज श्री आनन्दघनजी कहते हैं कि राह में - चलते-चलते बार-बार प्रभु का स्मरण करके हे मानव तू उनके गुण-गान • कर ले ॥५॥ . . .
विवेचन–श्रीमद् आनन्दघन स्वयं बाह्य परिग्रहों का परित्याग .. करके भगवान के सद्गुणों का स्मरण करते हुए कहते हैं कि संसार के
मार्ग में जो आत्म-साधक मनुष्य भगवान के सद्गुणों को स्मरण करके गाते रहते हैं वे प्रभु के मार्ग पर चले जाते हैं। अत: हे मनुष्यो ! तुम
तनिक सचेत हो जाओ और भगवान का स्मरण करके उनके गुण गाते ... ' रहो। .
(८)
( राग-बेलावल ) दुल्हन री ! तू बड़ी बावरो, पिया जागे तू सोवे ।। पिया चतुर हम निपट, अज्ञानी, न जाने क्या होवे ? प्रानन्दघन पिया दरस पियासे, खोल घूघट मुख जोवे ॥ १॥
नोट-यह पद अनेक प्रतियों में नहीं है। श्री कापड़िया ने इस पद के सम्बन्ध में शंका की है कि यह पद श्री प्रानन्दघनजी द्वारा रचित नहीं