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________________ श्री आनन्दघन पदावली - १८६ अर्थ - हे मेरे चतुर एवं प्रिय स्वामी ! हे प्रेमी आत्माराम ! जैसा मैंने जाना था वैसा ही आपने किया अर्थात् अनादिकाल के पश्चात् आपने मानव-देह बनाई है ।। १ ।। अर्थ - हे चेतन ! आपने एक बूंद का काया रूपी महल बनाया है, जिसमें आपने अपनी ज्योति प्रकाशित की है। इस महल में राग-द्वेष रूपी दो चोर हैं जो ग्रात्म-स्वरूप की चोरी करते रहते हैं । सांस एवं आयु रूपी दो चुगल हैं जो काल को आयु की स्थिति की चुपके से सूचना देते रहते हैं, इस कारण इस काया रूपी महल की कोई भी बात गुप्त नहीं रही ।। २ ।। अर्थ - इस देह रूपी मन्दिर में पाँच इन्द्रियाँ तथा मन, वचन और तन - मन्दिर रूपी राजधानी में राज्य एक मन रूपी स्त्री ने इस देह को ज्ञान रूपी खड्ग के द्वारा वश में कर से काया - ये आठ स्त्रियाँ हैं जो इस करती हैं । इन आठ स्त्रियों में ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण संसार को लिया है ।। ३ ।। अर्थ - इस तन- मन्दिर में चार पुरुष - क्रोध, मान, माया और लोभ हैं जो अनादि काल से भूखे हैं जो कभी तृप्त नहीं हुए । आत्मिक गुणों को खाकर भी इनको तृप्ति नहीं मिली । इस मन्दिर में स्वभावपरिणति रूप एक ही असल वस्तु है जिसे ब्रह्मज्ञानी ही पूछता है, वही इसकी कद्र करता है ॥ ४ ॥ अर्थ - चारों गतियों – नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में परिभ्रमण करते हुए अनन्तकाल व्यतीत हो गया है, परन्तु कर्म की विचित्रता किसी ने नहीं पहचानी । योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि इस पद का मर्म आत्म-स्वरूप का ज्ञाता कोई विरला भव्य जन ही जान पाता है ।। ५ ।। ( ७४ ) ( राग - मारू ) उदार हो, निस्पृह देश सुहामणो, निरभय नगर बसि अंतरजामी । निरमल मन मंत्री बड़ो, राजा वस्तु विचार हो, बसि अंतरजामी ॥ १ ॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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