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योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-१८८
विवेचन-प्रस्तुत पद में श्रीमद् आनन्दघनजी ने कर्जदार व्यापारी के बहाने से प्रात्मा पर कर्मों के ऋण का दिग्दर्शन कराया है। सचमुच, आत्मा पर अष्ट कर्मों का ऋण है किन्तु राग-द्वेष के कारण भव-भ्रमण रूपी ब्याज इतना बढ़ गया है कि वह चुकाया नहीं जा रहा है। सम्पूर्ण आयु रूपी मूलधन पूरा हो जाने पर भी ब्याज चुकता नहीं हो पाया। शान्ति प्राप्त करने के लिए जल-मार्ग एवं स्थल-मार्ग से अनेक तीर्थों का भ्रमण होता है, परन्तु स्थिरता रूपी प्रामाणिकता नहीं होने के कारण कहीं पर आश्वस्त नहीं होता। आत्मा सोचता है कि कोई ज्ञानी व्यक्ति राग-द्वेष रूपी ब्याज छुड़ा दे तो कर्मोदय रूप मूल रकम को भोग कर चकतो करूँ। ज्ञानी महापुरुष के संसर्ग से विरति के द्वारा भविष्य की कर्म-वृद्धि रूप ब्याज से मुक्ति मिलने से कर्म रूपी ऋण चुक जायेगा।
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( राग-सोरठ) कंत चतुर दिलजानी हो, मेरो कंत चतुर दिलजानी। जो हम चीनी सो तुम कीनी, प्रीत अधिक पहिचानी हो ।।
. . मेरो० ॥ १ ॥ एक बूंद को महल बनायो, तामे ज्योति समानी हो । दोय चोर दो चुगल महल में, बात कछु नहीं छानी हो ।।
मेरो० ।। २ ।। पाँच अरु तोन त्रिया मंदिर में, राज करै रजधानी हो। एक त्रिया सब जग बस कीनो, ज्ञान-खङ्ग बस पानी हो ।
मेरो० ।। ३ ।। चार पुरुष मंदिर में भूखे, कबहू त्रिपत न पानी हो। एक असील इक असली बूझे, बूझ्यो ब्रह्मा ज्ञानी हो ।।
मेरो० ।। ४ ।। चारु गति में रुलतां बीते, करम को किनहू न जानी हो। प्रानन्दघन इस पद कुबूझे, बूझ्यो भविक जन प्रानो हो ।।
मेरो० ।। ५ ।।