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श्री श्रानन्दघन पदावली - १८७
का स्वामित्व और अनन्त गुणरूप परिकर - ऐसा वैभव अन्यत्र देखने में नहीं आया । मेरे प्रानन्द के समूहभूत आत्मा ने मुझे प्रदेश-प्रदेश में धारण किया है, अब मेरे आनन्द का कोई पार नहीं है । मैं सुख की अपार लीला का उपभोग करती हूँ । श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने इस प्रकार चेतना एवं आत्मा की शुद्ध दशा का वर्णन किया है ।। ३ ।।
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( राग- प्रभाती, प्राशावरी )
मुदल थोड़ों रे भाइड़ा व्याजड़ो घरणेरो, किम करि दीधो जाय । तल पद पूँजी व्याज में श्रापी सघली, तो ही न पूरड़ो थाय ॥
मुदल ० ।। १ ।। व्यापार भागो रे भाइड़ा जलवट थलवट रे, धीरे न निसाणी माइ । व्याजडो छोड़ावी कोई खादी परठवेरे, मूल
आपू सम खाइ ।।
मुदल० ।। २ ।। हाडु मांडु रे रूडै माणक चौकमांरे, साजन नो मनड़ो मनाइ । आनन्दघन प्रभु सेठ सिरोमणि, बांहडी
झालेजी आई ||
मुदल ० ।। ३ ।।
अर्थ - अरे भाई ! मूल रकम तो अल्प ही है परन्तु ब्याज की रकम मूलधन से भी अत्यन्त अधिक हो गई है। जो कैसे चुकाई जा सकेगी? मैंने अपनी सम्पूर्ण मूल राशि ब्याज में दे दी तो भी ब्याज चूकता नहीं हुआ ।। १ ॥
अर्थ - अरे भाई ! इससे मेरा जलमार्ग एवं स्थल मार्ग का सब व्यापार नष्ट हो गया, मेरी प्रामाणिकता का कोई विश्वास नहीं करता । मैं शपथ पूर्वक कहता हूँ कि कोई व्यक्ति ब्याज छुड़ा कर मूल रकम की किश्त करा दे तो मैं मूल रकम दे दूंगा ।। २ ।।
अर्थ- मैं सज्जन व्यक्तियों का मन मना कर, उनका विश्वास प्राप्त करके नगर के श्रेष्ठ मारणक चौक (सदर बाजार ) में दुकान लगाकर धन. अर्जित करके रकम चुका दूंगा । श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि हे सेठ शिरोमणि प्रभो ! मेरा हाथ पकड़ो। आप ही निराधारों के एकमात्र आधार हो ।। ३ ।।