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________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एव उनका काव्य - १६० सुरिण शिवगामी । सुरिण निहकामी ॥ सुरिण शुभनामी । तू चूकिस मा । केवल कमलागार हो, सुरिंग केवल कमलानाथ हो, सुरिंग केवल कमलावास हो, सुरिण प्रतम तूं चूकिस मा, साहिब राजिन्दा तू चूकिस मा, अवसर लही ॥ टेक ॥। गढ़ संतोस सामौ दसा साधु संगति पोलियो विवेक सु जागतो, श्रागम पायक दिढ़ विसवास बतागरौ, सु विनोदी मित्र वैराग विहड़ै नहीं, क्रीड़ा सुरति दिढ़ विवहार हो । समता नीर समपन भव पोलि हो । तोलि हो ।। २ ।। भावना बार नदी वहे, ध्यान चहबचौ भर्यो रहे, उचालै नगरी नहीं, दुष्ट दुकाल न ईत अनीत व्यापं नहीं, श्रानन्दघन पद अपार हो ॥ ३ ॥ गंभीर हो । समीर हो ॥ ४ ॥ जोग हो । भोग हो ।। ५ ।। अर्थ - तृष्णारहित निस्पृह रूपी सुहावने देश में निर्भय नामक उदार नगर है जहाँ अन्तर्यामी चेतन का निवास है, राज्य है । तत्त्व स्वरूप का विचारक भेदज्ञानी अनुभव वहाँ का राजा है और निर्मल मन: वहाँ का प्रधानमन्त्री है ॥ १ ॥ . विवेचन - योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी महाराज अपने आन्तरिक देश का वर्णन करके अपनी आत्मा को बोध देते हैं । अर्थ - हे आत्मन् ! तू केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी का स्थान है । हे मोक्षगामी ग्रात्मन् सुन । हे निष्कामी प्रात्मन् ! सुन, केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी का तू स्वामी है । हे शुभ नाम वाले आत्मन् ! सुन, तुझ में ही ज्ञान रूपी लक्ष्मी का निवास है, तू ही चेतन है, अन्य सब जड़ हैं । हे आत्मन् ! यह मानवभव दुर्लभ है, अतः तनिक भी चूकना मत । हे स्वामी ! हे राजराजेश्वर ! तुझे यह दुर्लभ अवसर प्राप्त हुआ है, अब तू किंचित् भी मत चूकना ॥ टेक ॥ विवेचन - श्रीमद् अपनी आत्मा को सम्बोधित करके बोध देते हैं कि बाह्य देश, बाह्य नगर, बाह्य लक्ष्मी एवं बाह्य स्थान की अपेक्षा अन्तर
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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