________________
श्री आनन्दघन पदावली - १९१
अन्तर के देश आदि अतः हे चेतन !
का देश, नगर, लक्ष्मी एवं स्थान प्रत्यन्त सुखद हैं । को प्राप्त करने के लिए मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ है । अब तू चूक्रेना मत । इन शब्दों से योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी की अत्यन्त अप्रमत्त दशा में प्रवेश करने की तीव्र इच्छा का अनुमान होता है । उनका कथन है कि हे आत्मन् ! तू परमात्मा है, तेरी सत्ता सिद्ध के समान है । अतः अब अवसर पाकर अपना शुद्ध स्वरूप प्राप्त कर ।
अर्थ - श्रीमद् अब अन्तर - नगर की व्यवस्था आदि बताते हुए कह रहे हैं । वे अपनी आत्मा को इस प्रकार जागृत कर रहे हैं कि इस निस्पृह देश के निर्भयं नगर का सन्तोष रूपी किला है, अर्थात् ग्रात्म-तृप्ति ही इस निर्भय नगर का किला है । साधु-संगति इस किले का सुदृढ़ द्वार है । अतः इसमें मोक्ष का प्रवेश नहीं हो सकता । विवेक रूपी द्वारपाल द्वार पर सदा जागता रहता है और यहाँ ग्रागम पैदल सिपाहियों अर्थात् अनुचरों के समान हैं ।। २ ।।
अर्थ - नगर के दृढ़ श्रद्धा रूपी निपुण सूत्रधार हैं । इसी के संकेत पर सम्पूर्ण शासन चलता है । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ्य भाव -मय यहाँ का विनोदपूर्ण व्यवहार है । वैराग्य रूपी मित्र कदापि साथ नहीं छोड़ता । आत्म-रमरणता ही यहाँ की अपार क्रीड़ा है ।। ३ ।।
अर्थ - यहाँ नित्य बारह भावना रूपी नदियाँ बहती हैं जिनमें समता रूपी गहरा जल है, जिससे ध्यान रूपी छोटा हौज सदा भरा रहता है और समर्पण भाव रूप हवा सदा चलती रहती है ।। ४ ।।
अर्थ -- निर्भय नगरी में किसी भी तरह का उपद्रव नहीं है । यहाँ निवास करने वालों का मन कभी उचाट नहीं होता, डाँवाडोल नहीं होता और यहाँ पर भाव रमरण रूप दुष्ट दुर्भिक्ष का भय नहीं है । यहाँ प्रति-वृष्टि आदि इतियों का भय नहीं है, यहाँ अनीति एवं अनाचार का प्रवेश नहीं है । यहाँ तो आनन्द ही आनन्द का भोग है ।। ५ ।।
विवेचन -- योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने बताया है कि अन्तर की ऐसी नगरी कदापि अस्थिर नहीं होती । वहाँ कदापि उपद्रव नहीं होता । अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूषक - शलभ-शुक, स्वचक्र और परचक्र युद्ध - ये पाँच ईतियाँ कहलाती हैं । इन तियों तथा अनीति की प्रवृत्ति अन्तर के देश एवं नगर में कदापि व्याप्त नहीं होती । श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने अन्तर के देश तथा नगर का जो वर्णन किया है, उसे प्राप्त