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श्री आनन्दघन पदावली
( भावार्थ सहित )
(१)
राग-वेलावल क्या सोवे उठ जाग बाउरे । अंजलि जल ज्यू आयु घटत है, देत पहोरियाँ घरिय घाउ रे ॥
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क्या० ॥१॥ इन्द्र चन्द्र नागिंद मुनिंद चले, कौन राजा पतिसाह राउ रे । भ्रमत-भ्रमत भव जलधि पाई के, भगवंत भगति सुभाव नाउ रे ।। .
क्या० ।।२।। कहा विलंब करे अब बाउरे, तरि भव-जल-निधि पार पाउ रे । प्रानन्दघन चेतनमय मूरति, सुद्ध 'निरंजन देव ध्याउ रे ।।
__ क्या० ॥३॥ भावार्थ-अरे भोले मूर्ख मानव ! तू मोह-निद्रा में क्या पड़ा है ? उठ जाग्रत हो जा। तेरा आयुष्य अंजलि में भरे पानी के समान घट रहा है । पहरेदार घड़ियाल पर टकोरे मार-मार कर तुझे सचेत कर रहा है। इस प्रकार घड़ियाल पर चोट लगाते-लगाते उस स्थान पर घाव सा दृष्टिगोचर होने लग गया है, परन्तु तेरे हृदय पर कोई प्रभाव नहीं हुआ है। तू सचेत क्यों नहीं हो रहा ? बीता हुआ आयुष्य कदापि लौट कर नहीं आयेगा। चिन्तामणि रत्न से भी दुर्लभ मनुष्य-भव तुझे प्राप्त हुआ है। मोह-नींद में ऐसा अमूल्य मानव-जन्म नष्ट करना उचित नहीं है। प्रतः हे चेतन ! जाग्रत हो जा, सचेत हो जा।
देवताओं के राजा इन्द्र, ज्योतिष-चक्र के स्वामी चन्द्र, नागलोक के स्वामी धरणेन्द्र और मुनियों के स्वामी तीर्थंकर भगवान भी इस देह का त्याग करके चले गये तो राजा, बादशाह और शाह तथा चक्रवर्ती की बात ही क्या है अर्थात् इन्द्र एवं तीर्थंकर जैसों की देह भी प्रायुष्य का क्षय होने