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योगिराज श्रीमद् आनन्दधनजी एवं उनका काव्य-३२
पर छूट जाती है। मृत्यु के समय उनका भी कुछ भी जोर नहीं चलता तो हे भोले मूढ़ ! तू निश्चय समझ कि मृत्यु के सामने तू किसी गिनती में नहीं है । तेरा भला क्या सामर्थ्य है ! भव-सागर में परिभ्रमण करतेकरते मनुष्य जन्म में भगवान की भक्ति रूपी स्वाभाविक नाव इस भवसागर से पार होने के लिए तुझे प्राप्त हुई है। तू इस नाव का उपयोग करके अपने लक्ष्य पर पहुँच। तू भव-सागर से पार जाने के लिए प्रभुभक्ति रूपी नाव में क्यों नहीं बैठता ? अरे बावरे ! अब तू विलम्ब क्यों कर रहा है ? प्रभु की भक्ति रूपी नाव से संसार-सागर से पार लग। जब तुझे भव-सागर को पार करने की सामग्री प्राप्त हुई है.तो फिर प्रमाद क्यों कर रहा है ? आनन्दघनजी कह रहे हैं कि प्रानन्द का घन जिसमें है ऐसी शुद्ध, निरंजन, चैतन्यमय, राग-द्वेष रहित देव का ध्यान कर जिससे तू भी उसके समान बन जाये । '
प्रभुभक्ति से बढ़कर संसार-सागर से पार पाने का अन्य कोई साधन नहीं है। अतः आनन्दघनजी कहते हैं कि हे आत्मन् ! तू प्रभु का स्मरण कर, विलम्ब मत कर। आयुष्य का कोई विश्वास नहीं है। जब चक्रवर्ती और तीर्थंकर भी नहीं रहे तो अन्य प्राणियों की क्या बिसात है ? अतः तू विलम्ब किये बिना भगवान का स्मरण कर, शुद्ध आत्म-स्वरूप का ध्यान कर ताकि तू अपनी स्वाभाविक स्थिति प्राप्त कर सके।
(२).
राग-बेलावल एकताली रे घरियारी बाउरे, मत घरिय बजावे । नर सिर बाँधत पाघरी, तू क्यों घरीय बजावे ॥ रे घरि० ॥१।। केवल काल कला कले, पै तू अकल न पावे । अकल कला घट में घरी, मुझ सो घरी भावे ॥रे घरि० ॥२॥ आतम अनुभव रस भरी, यामें और न मावे । प्रानन्दघन अविचल कला, विरला कोई पावे ।। रे घरि० ॥३॥
अर्थ-हे घड़ी बजाने वाले पगले ! तू घड़ी मत बजा, तेरा यह प्रयास व्यर्थ है। पुरुष तो घड़ी के चौथे भाग का निर्देश प्राप्त हो तथा वैराग्य का प्रभाव रहे, अतः सिर पर पगड़ी बांधते हैं, जिससे यह निर्देश मिलता है कि जगत् में चौथाई (पाव) घड़ी के जीवन का भी भरोसा