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श्री आनन्दघन पदावली-१४१
पर घर भमता स्वाद किसौ लहे, तन धन जोबन हाणि । दिन दिन दीसे अपजस, बाधतो, निज मन माने न काणि ।।
बालूडी० ॥ ३॥ कुलवट लोपी अवट ऊवट पड़े, मन महता नै घाट । प्रांधे प्रांधो जिम . ठग ठेलिये, कौण दिखावे वाट ।।
बालूडी० ।। ४ ।। बंधु विवेके पीवड़ो बुझव्यौ, वार्यों पर घर संग । हेजे मिलिया. चेतन-चेतना, वो परम सुरंग ।।
. बालूड़ी० ।। ५ ।। अर्थ-- बेचारी बाला अबला क्या जोर करे ? किस प्रकार प्रियतम को पर घर अर्थात् ममता के घर जाने से रोके ? पूर्व दिशा को छोड़कर पश्चिम दिशा के प्रति अनुरक्त सूर्य अस्त हो जाता है और अन्धकार छा जाता है। अर्थात् जब चेतन समता रूपी स्व-परिणति को छोड़कर ममता रूपी पर-परिणति की ओर चला जाता है तो उसका ज्ञान-प्रकाश अस्त हो जाता है, सर्वत्र प्रज्ञान का अन्धकार छा जाता है ।।१।।
... विवेचन-समता विवेक को कहती है कि मैं एक तो अबला हूँ और दूसरी बात यह है कि मेरी बाल वय है। मैं स्वामी को रोकने के लिए क्या जोर कर सकती हूँ ? मेरा स्वामी के समक्ष कुछ जोर नहीं चलता। मेरे स्वामी मुझे छोड़कर अन्य स्त्री के प्रति आसक्त होते हैं, इसमें उनकी ही हानि है। जगत् में अनेक पुरुष पर स्त्री पर आसक्त होने से रावण की तरह नष्ट हुए हैं। . अर्थ-पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान चेतन को समझना चाहिए और उसकी चांदनी के समान ज्ञान को समझना चाहिए चन्द्रमा जिस प्रकार बादलों से घिर जाता है, उसी प्रकार यह चेतन कर्म-दलिकों से ढक जाता है ।।२॥
विवेचन-चन्द्रमा के प्रकाश की तरह प्रात्मा के असंख्यात प्रदेशों को ज्ञानावरणीय आदि कर्म अनादिकाल से घेरे रहते हैं, जिससे आत्मा का ज्ञान प्रकाश ढक जाता है। ज्यों-ज्यों कर्म के आवरण हटते हैं, त्योंत्यों ज्ञान का आविर्भाव होता है।