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योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-१४०
ठग है, धत है। यह क्रोध, मान, माया, लोभ तथा प्रज्ञान आदि परिवारजनों को पोषक है। अतः हे अनुभव ! मैं यह सब कैसे सहन कर सकती हूँ ? इसका तुम मन में विचार क्यों नहीं करते ?
अर्थ – इस कुलटा, दुष्ट, कुबुद्धि के साथ विलास करके, इसके हाथों का खिलौना बन कर आप अपनी प्रतिष्ठा क्यों खो रहे हो? आप के प्रति हमारा जो विश्वास है कि आप हमारे हितैषी हो-यह विश्वास क्यों नष्ट कर रहे हो ? आनन्दघन जी योगिराज कहते हैं कि आनन्द के समूह चेतन सुमति के घर आ जायें तो विजय के नगारे बजने लगें अर्थात् समस्त कार्य सिद्ध हो जायें ।।४।।
विवेचन -सूमति अनुभव को कहती है कि आप मेरे स्वामी को कहिये कि वे कुलटा एवं कुटिल तृष्णा की संगति करके अपनी प्रतिष्ठा मिट्टी में क्यों मिला रहे हैं ? वे आनन्द के समूह आत्मा रूंप स्वामी यदि मेरे घर आ जायें तो वे तीन लोक के नाथ बन जायें तथा समस्त कर्मों का क्षय करके परमात्म स्वरूपमय हो जाय ।
तृष्णा की गति कुटिल है, उससे कुबुद्धि उत्पन्न होती है। जगत् में समस्त जीव तृष्णा के कारण कुबुद्धि धारण करके हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, विश्वासघात एवं क्लेश आदि पाप करते हैं। इस कारण सुमति ने अनुभव को कहा कि आप मेरे आत्मा रूपी पति को कहना कि आप नीच, कुलटा तृष्णा की संगति में रहकर अपने कुल की प्रतिष्ठा, धन, बल एवं बुद्धि का नाश कर रहे हो। श्रीमद् अानन्दघन जी महाराज कहते हैं कि यदि अनुभव के समझाने पर आत्मा सुमति के घर आ जाये तो विजय के नगारे बज उठे और सर्वत्र आनन्द-पानन्द हो जाये ।
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( राग-धन्यासिरी ) बालूड़ी अबला जोर किसो करे, पीउड़ो पर घर जाइ । पूरब दिसि तजि पच्छिम रातड़ो, रवि अस्तंगत थाइ ।।
बालूडी० ।। १ ।। पूरण शशि सम चेतन जाणिये, चन्द्रातप सम नाण । बादल भर जिम दल थिति प्राणिये, प्रकृति अनावृत जाण ।।
बालूड़ी० ।। २ ॥