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श्री आनन्दघन पदावली-२६७
बंधोदयोदीरणा=बंध, उदय, उदीरणा (बंध कर्मों का आत्मा के साथ मिलाप) । उदय कर्मफल प्रवृत्ति काल । उदीरणा कर्मफल प्रवृत्तिकाल से पूर्व ही कर्मों को उदय के लिए खींचना। सत्ता = प्रात्मा के साथ कर्मों की उपस्थिति । विच्छेद =अलग होना। कनकोपलवत स्वर्ण एवं पत्थर के समान । पयडी= कर्म प्रकृति । जोडी=सम्बन्ध, साथ । सुभाय =स्वभाव से ही। आस्रव= फर्मग्रहण का द्वार। संवर=कर्मग्रहण के मार्ग की रोक । हेयोपादेय =त्याग करने एवं ग्रहण करने योग्य । जुजन करणे =कर्मों से जुड़ना। गुण करणे= गुण ग्रहण करने पर । भंग नष्ट । सुअंग= उत्तम उपाय । वाजसे=बजेंगे । तूर =तुरही (बाजा)। वाधसे बढ़ेगा।
अर्थ-भावार्थ-विवेचन हे पद्मप्रभो! आपका एवं मेरा अन्तर कैसे दूर होगा? इसका कोई बुद्धिमान व्यक्ति अन्तर होने के कारणों पर विचार करके उत्तर देता है कि कर्म-विपाक होने से अर्थात् कर्म के कारणों का अभाव होने पर अन्तर दूर होगा ।।१।।
____ कर्मों के सम्बन्ध में बताया है कि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश-ये चार भेद हैं। कर्म के मूल पाठ भेद हैं और उत्तर अनेक भेद हैं। (कर्मों के मूल पाठ भेद हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय, वेदनीय, नाम कर्म, गोत्र कर्म और आयुष्य कर्म; उत्तर भेद तो
. . .हे पद्मप्रभु भगवन् ! मैं आप में और मुझमें जो अन्तर है उसे पाटना चाहता हूँ। सत्ता कर्मों का क्षय होने पर ही भगवान और मेरे मध्य जो अन्तर है वह समाप्त होगा। . ऐसे उद्गारों से जीवों को उपदेश देने वाले अध्यात्मयोगी श्रीमद् प्रानन्दघनजी के चरणारविन्द में कोटि-कोटि वन्दना ।
4220014 दुकान
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8 डोसी देवकरण श्रीचन्द जैन ४
ग्रेन मर्चेण्ट एण्ड कमीशन एजेन्ट 15, कृषि उपज मण्डी, मेड़ता सिटी-341510 (राजस्थान)