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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२६६
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श्री पद्मप्रभु जिन स्तवन (राग - मारू तथा सिन्ध : चांदलिया संदेशो कहिजे म्हारा कंत ने रे,
ए देशी) पद्मप्रभु जिन तुझ मुझ प्रांतरू, किम भांजे भगवन्त । करम विपाकै कारण जोइने, कोई कहे मतिवन्त ।।
• पद्म ।। १. ।। पयई ठिई अणुभाग प्रदेश थी, मूल उत्तर बहुभेद । घाती अघाती बंधोदयोदीरणा, सत्ता करम विछेद ।।
पद्म ॥ २ ॥ कनकोपलवत पयडी पुरुष तणी, जोड़ी अनादि सुभाय । अन्य संजोगी जंह लगि प्रातमा; संसारी कहवाय ।।
, पद्म ।। ३ ।। कारण जोगे बाँधे बंधने, कारण मुगतिं मुकाय । प्रास्रव संवर नाम अनुक्रमे, हेयोपादेय सुणाय ।।
, पद्म ।। ४ ।। जुजन करणे अंतर तुझ पड्यो, गुण करणे करि भंग । ग्रन्थ उक्ति करि पंडित जन कह्यो, अन्तर भंग सुअंग ।।
. पद्म ।। ५ ।। तुझ मुझ अन्तर अन्ते भांजसे, बाजसे मंगल तूर । जोव सरोवर अतिशय वाधसे रे, 'पानन्दघन' रस पूर ।।
पद्म ।। ६ ।। शब्दार्थः-प्रांतरू =अन्तर। भांजे नष्ट हो। विपाके फल । मतिवंत बुद्धिमान । पयइ = प्रकृति बंध। ठिई स्थिति बंध । अणुभाग= कर्म का बल । मूल मुख्य । घाती=ज्ञानादि गुणों के नाशक । अघाती= मूल गुणों को नष्ट न करने वाले तथा संसार में परिभ्रमण कराने वाले कर्म ।