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श्री आनन्दघन पदावली - २६५
शब्दार्थ : - कँज – कमल । अरपण = भेंट करना । तरपण= तर्पण, तृप्त करना । परिसरपण = अनुगमन । तनुधर = देहधारी । धुर = प्रथम | 'अविछेद = अखंड, अविनाशी । अघ= पाप | साखीधर == साक्षी | पावनो= पावन, पवित्र । वरजित = छोड़ा हुआ । उपाध= उपाधि, बाधा । भाववु = विचारना । दाव = उपाय । परम पदारथ = मोक्ष | संपजे = = प्रकट हो ।
आगरू=
खजाना ।
अर्थ- भावार्थ - श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि श्री सुमतिनाथ जिनेश्वर के चरण कमल दर्पण के समान अविकारी और निर्मल हैं । मैं उनके चरण-कमलों में आत्मसमर्पण करता हूँ । उनके चरण-कमल अनेक मनुष्यों के द्वारा मान्य हैं और मति को तृप्त करने वाले हैं, सन्तुष्ट करने वाले हैं । अत: इस विचार का ही अनुगमन करना चाहिए ।। १ ।। समस्त देहधारियों में आत्मा की स्थिति तीन प्रकार से है । बहिरात्मा, द्वितीय अन्तरात्मा और तृतीय अविनाशी अखण्ड
प्रथम
परमात्मा ।। २ ॥
देह आदि पुद्गल पिण्ड को आत्मबुद्धि से ग्रहण करना, उसे आत्मा मानना पाप रूप बहिरात्म भाव है । देह आदि के कार्यों में साक्षी रहने वाला ही राजा अन्तरात्मा है ।। ३ ।।
परम पावन, समस्त उपाधियों से रहित, अविकारी, ज्ञानानन्द से परिपूर्ण, इन्द्रियातीत तथा अनेक गुरण रूपी रत्नों का भण्डार परमात्मा को समझें ॥। ४ ॥
हरात्म भाव को त्याग कर, अन्तराभिमुख होकर स्थिरता से धैर्यपूर्वक अपने भीतर ही आनन्द की खोज करके परमात्म स्वरूप का चिन्तन ही आत्म-समर्पण का श्रेष्ठ दाव ( उपाय ) है ।। ५ ।।
आत्म अर्पण तत्त्व पर विचार करने से मति - दोष का भ्रम ( संशय ) टल जाता है; मोक्ष रूपी महान् सम्पदा प्रकट होती है जो आनन्द रस की पोषक हैं ।। ६ ।
श्रीमद् के अनुसार देह आदि के कार्यों में साक्षी अन्तरात्मा है । ऐसे महान्, अध्यात्म योग के धनी श्री श्रानन्दघनजी के चरणों में कोटि कोटि वन्दन ।
* जुगलकिशोर, शान्तिकिशोर
14, कृषि उपज मण्डी, मेड़ता सिटी (राज.) 341510 (0) 20101, (R) 20175, 30251