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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २६८
अनेक हैं । मुख्य १४८ अथवा १५८ हैं । ) कर्म के मूल भेदों में प्रथम चार घाती कर्म हैं और अन्तिम चार घाती कर्म हैं । मूल आठ कर्मप्रकृतियों एवं इनकी उत्तर प्रकृतियों का बंध होता है अर्थात् आत्म-प्रदेशों के साथ मेल होता है । तत्पश्चात् ये उदय में आते हैं, फल देते हैं । बद्धकर्मों की उदीरणा होती है अर्थात् तप आदि करके इन्हें उदय में लाकर नष्ट कर दिया जाता है। शेष कर्म 'सत्ता' कहलाते हैं । इन सत्ता कर्मों का क्षय होने पर ही पद्मप्रभु भगवान और मेरे बीच का अन्तर नष्ट होगा, यह बुद्धिमानों का कथन है || २ ||
कर्म प्रकृति एवं पुरुष ( आत्मा ) की जोड़ी स्वर्ण एवं पत्थर की तरह अनादि काल से चली आ रही है । स्वर्ण एवं पत्थर अनादि काल से खान में मिले हुए पाये जाते हैं । जब तक आत्मा का कर्म - पुद्गलों के साथ सम्बन्ध है, तब तक वह संसारी कहलाता है ||३||
कारण उत्पन्न होने पर ही आत्मा कर्म बाँधता है । कर्म-बन्ध के कारण हैं - मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय और योग । कर्म-बन्धन के कारणों को छोड़ने से ही आत्मा की मुक्ति होती है । आस्रव से कर्मबन्ध होता है अतः ये त्याज्य हैं और संवर से कर्मबन्ध रुकता है, अतः ये उपादेय हैं। अर्थात् ग्रहण करने योग्य हैं ||४||
टिप्पणी- बुद्धिमानों का कथन है कि हेय उपादेय की विवेकपूर्वक प्रवृत्ति होने से ही भगवान श्री पद्मप्रभु से अन्तर दूर होगा ।
कर्मों से जुड़ने के कारण ही हे जिनेश्वर भगवान ! आपके और मेरे मध्य व्यवधान पड़ा है। आत्म - गुणों ( ज्ञान, दर्शन और चारित्र ) के विकास से यह व्यवधान नष्ट होगा । शास्त्रों के प्रमाण से ज्ञानियों ने इसे व्यवधान दूर करने का श्रेष्ठ उपाय माना है ||५||
टिप्पणी- आत्मा का कर्म से सम्बन्ध करने की क्रिया 'गु ंजनकरण' कहलाती है । आत्मा की ज्ञान, दर्शन, चारित्र ग्रहण करने की क्रिया को 'गुणकरण' कहा गया है । गुणकरण से ही गुंजनकरण का नाश होता है ||५||
हे प्रभो ! आपके और मेरे मध्य का यह व्यवधान दूर होगा और मंगल वाद्य बज उठेंगे । अनाहत नाद की झंकार होगी । जीव रूपी यह सरोवर आनन्द - रस से छलछला उठेगा और मेरी निर्भल आत्मा 'पद्मप्रभु' तुल्य बन जायेगी और पूर्णानन्द प्राप्त होगा ।। ६ ।।
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