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श्री आनन्दघन पदावली-३२१
तनिक भी संकोच नहीं करते, तनिक भी नहीं लजाते। अपनी उदरपूर्ति आदि कार्य करते हुए ये लोग कलिकाल के राज्य में मोह में फंसे हुए हैं ।। ३ ।।
विवेचनः-इन क्रियाओं के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न दृष्टि से अनेक गच्छों एवं सम्प्रदायों का उद्भव हुआ। श्रीमद् आनन्दघनजी का कथन है कि साधुनों को विभिन्न गच्छों के मत-भेद की क्रियाओं आदि की चर्चा करके क्लेश बढ़ाकर आत्म-हित नहीं चकना चाहिए। उन्हें गच्छों की विभिन्न क्रियाओं की मान्यता के भेद से असहिष्णुता से ईर्ष्या, क्लेश, निन्दा एवं खण्डन के शुष्क-विवाद करके समाधि-रूपी चारित्र से च्युत नहीं होना चाहिए। श्रीमद् आनन्दघनजी का आशय यह है कि गच्छ के भेदों के द्वारा क्लेश करके, प्रमादी बन कर जो साधु तत्त्वों की बातें करते हैं वे न तो गच्छ को सुशोभित कर सकते हैं और न वे आत्मकल्याण ही कर सकते हैं; वे मोह में पड़ जाते हैं ।। ३ ।।
अर्थ-भावार्थः-निरपेक्ष वचन असत्य हैं, सापेक्षवाद ही सत्य है। सापेक्षवाद का प्रयोग ही उत्तम व्यवहार है। निरपेक्ष वचनों के प्रयोग से संसार की वृद्धि होती है। यह सुनकर, स्वीकार कर उसमें क्यों निमग्न : होते हो ? ॥ ४ ॥
विवेचनः-जैनधर्म सापेक्षवाद को महत्त्व देता है। यह धर्म का सच्चा स्वरूप बतलाता है। अपेक्षा दृष्टि के बिना एकान्त दृष्टि की समस्त मान्यताएँ अंसत्य हैं, पतन की ओर ले जाने वाली हैं, जिनका परिणाम भव-भ्रमण ही है, मुक्ति नहीं ।। ४ ।।
अर्थ-भावार्थः-आगम-शास्त्रों की साक्षी के बिना निरपेक्ष वचनों से, एकान्तवाद से देव, गुरु, धर्म की शुद्धि कैसे रह सकती है ? शुद्ध श्रद्धा-रहित की हुई समस्त क्रियाएँ इस प्रकार व्यर्थ हो जाती हैं जिस प्रकार छार (मिट्टी) के प्रांगन पर किया गया लीपरण ।।५।
अर्थ-भावार्थः-- उत्सूत्र भाषण (आगम-विरुद्ध भाषण) के समान संसार में कोई पाप नहीं है और आगमों के अनुसार कथन तथा आचरण के समान कोई धर्म नहीं है। सूत्रों के अनुसार आगमों के अनुसार जो भव्य जोव क्रियाएँ करता है उसके चारित्र को ही शुद्ध समझना चाहिए ।। ६ ॥