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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३२०
अर्थ-भावार्थ - श्रीमद् आनन्दघनजी के अनुसार तलवार की धार पर चलना सरल है, परन्तु चौदहवें तीर्थंकर भगवान श्री अनन्तनाथ की चरण-सेवा अत्यन्त दुष्कर है। तलवार की धार पर तो अनेक नट चलकर दिखाते हैं परन्तु भगवान की चारित्र-सेवा रूपी धार पर देवता भी नहीं ठहर सकते क्योंकि उन्हें चारित्र-रत्न की प्राप्ति नहीं हो सकती।
_ विवेचन–अनेक क्रियावादियों का कथन है कि त्याग-वैराग्य आदि क्रियाओं के द्वारा भगवान की सेवा-भक्ति करनी चाहिए। . उन समस्त. विविध क्रियाओं का फल भी विविध होता है, जिसे नेत्र नहीं देख पाते। जिन क्रियानों को करने से मोक्ष-पद की प्राप्ति नहीं होती, भाँति-भाँति के अन्य फल प्राप्त होते हैं जिनसे वे बिचारे चार गतियों में परिभ्रमण करते हैं, जिनका लेखा नहीं बताया जा सकता। अत: अमुक क्रियाएँ . करने से सच्ची सेवा-भक्ति नहीं होती ।।१।।
अर्थ-भावार्थः-जो क्रियाएँ एकलक्ष्यी नहीं होतीं उनका फल भी , मोक्ष नहीं होता है, एक लक्ष्यी क्रिया ही चार गतियों का भ्रमण टाल सकती है ।। २ ॥
विवेचनः --जिस प्रकार लक्ष्य साध कर छोड़ा गया तीर ठीक निशाने पर लगता है और बिना लक्ष्य के छोड़ा गया तीर ऊपर नीचे हो जाता है और निशाने पर नहीं लगता ।। २ ॥
अर्थ-भावार्थः-श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि गच्छों के अनेक भेद दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसे गच्छसमर्थक तत्त्वों की बातें करते हुए
अध्यात्मयोगी श्रीमद् आनन्दघन जी को शत-शत नमन !
0 20233 8 मैसर्स अमुराम सुखदेव ७
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