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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३२२
विवेचनः-सूत्रों के प्रतिकल बोलने के समान कोई पाप नहीं है। केवल सूत्रानुसार, प्रागमों के अनुसार सच्ची श्रद्धापूर्वक जो क्रिया की जाये वही धर्म है। पैंतालीस आगम हमारे सूत्र गिने जाते हैं। सूत्रों के अनुसार पूर्वाचार्यों के द्वारा नियुक्ति, वृत्ति, भाष्य, चर्णी आदि की हुई होती हैं वे भी सूत्र रूप मानी जाती हैं। सूत्रों के अनुसार रचित प्रामाणिक ग्रन्थ, प्रकरण आदि भी सूत्रों की श्रेणी में आते हैं। इस कलियुग में श्री महावीर परमात्मा के आगमों का ही आधार है। श्रीमद् : आनन्दघनजी का कथन है कि वर्तमान में विद्यमान सूत्रों के समान कोई श्रुतधर्म नहीं है। श्रीमद् की नस-नस में, रोम-रोम में जैनागमों की श्रद्धा का रंग लगा था।
जो व्यक्ति आगमों के अर्थ का असत्य उपदेश देता है उसकी शुद्धि प्रायश्चित्त से भी नहीं हो सकती, क्योंकि जो व्यक्ति अपने व्रत भंग करता है, वह स्वयं की आत्मा को ही मलिन करता है परन्तु जो सिद्धान्त-ग्रन्थों का मषा उपदेश देता है वह अनेक आत्माओं को मलिन करता है, उन्हें संसार-सागर में डुबोता है। यह घोर पाप है ॥ ६ ॥
अर्थ-भावार्थः - यह छन्द श्री जिनेश्वर भगवान के उपदेश का सार-संक्षेप है। जो व्यक्ति इस आर्ष धर्म का चित्त में प्रति क्षण विचार करेगा, वह दीर्घ काल तक दिव्य सुख की अनुभूति करके निश्चय ही अनन्त आनन्द-दायक मोक्ष को प्राप्त करेगा ।। ७ ।।,
विवेचनः-सूत्रों में बताये गये अपेक्षावाद के अनुसार सोच-विचार कर, समझ कर क्रियाएँ की जायें तो वे क्रियाएँ फलदायक और शाश्वत आनन्द-दायिनी होती हैं ॥ ७ ॥
श्री धर्म जिन स्तवन
(राग-गौड़ी सारंग, रसिया की देशी) । धर्म जिनेश्वर गाऊँ रंग सू भंग म पडशो हो प्रीत । ' बीजो मन मन्दिर प्राणू नहीं, ए अम्ह कुलवट -रीत ।
धरम० ।। १ ।।